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Tuesday, 28 December 2010

मौत

किस से बचना चाहते हो

क्या तुम्हारी हस्ती है ?

मौत का साथ पक्का

जिंदगी तो छलती है

चल चलाचल दूर तक

इस से न मंजिल मिलती है

ख़तम होगा न ये सफ़र

मौत बस रास्ता बदलती है

केदारनाथ"कादर"

बड़ा इंसान बनता है बता ए खाक के पुतले


बड़ा इंसान बनता है बता ए खाक के पुतले ?

किया क्या खाक तूने, बस जीवन गंवाया है ?

कभी रोया है क्या उसकी इबादत में तू कह ?

शरीके -दर्द- दिल हो क्या किसी का दिल बंटाया है ?

कभी दिल तेरा भर आया है मुफलिस की गरीबी पर ?

कभी हिस्से का खाना बांटकर क्या तूने खाया है ?

मरने को आमादा है हरदम मेरे नाम पर तू क्यों ?

मुसीबत में क्या किसी आफतजदा के काम आया है ?

मेरी राह में छोड़ा है तूने, क्या बता तू कह ?

किसी बेकस की खातिर जान पर सदमा उठाया है ?

मुझे पाना बहुत आसान है सब में देख तू मुझको

इबादत का सलीका आदम तुझे फिर ये बताया है ?

केदारनाथ"कादर"

भूख

भूख बिकती है, खरीदी जाती है

गुर मिला है जनम से इन्सान को

बहुत पैने हो गए हैं नाखून अब

काटने को तैयार हैं ईमान को

खून, ईमान, इज्ज़त, सब बिकता है

भूख लाती है ऐसे मोड़ पे इन्सान को

भूख सिखलाती है जीने का हुनर

भूख भगवान बनाती है इन्सान को

केदारनाथ"कादर"

Sunday, 12 December 2010

पीड़ा



बहुत जानता है तू
बहुत कुछ सीखा है
पंडित है कर्मयोगी है
ज्ञेय है तुझे सब
पढ़ा है ग्रंथों को
जानता है अनेक रहस्य
बता मुझे पीड़ा क्या है ?
कैसी होती है पीड़ा ?
प्रेम की, प्रताड़ना की
प्रताड़ित मन के प्रति
प्रेम से उपजी पीड़ा
जानता भी है तू ?
पीड़ा क्या होती है ?
यदि नहीं तो छोड़
इस पांडित्य ढोंग को
जो तुम्हें एक साधारण
मनुष्य भी नहीं छोड़ता

केदारनाथ"कादर"


मैं समझ नहीं पाता अंतर

मैं समझ नहीं पाता अंतर
बिना गुरु पारंगत हुआ एकलव्य
भेद डाले अपने जीवन लक्ष्य
नरेन्द्र बन गया विवेकानंद
रामकृष्ण के आशीर्वाद से
कितने प्रयत्न करते हम
घूमते तीर्थों में ढूंढते गुरु
चरण शरण में भी रहकर
ओढ़कर रामनामी चादर
फिर भी रह जाते कोरे के कोरे

मैं समझ नहीं पाता अंतर
सात दिवस में परीक्षित ने
उद्धार कर लिया था अपना
सुनकर गीता वचन केवल
वर्षों से पूजारत हैं हम
आज भी याद करते हैं
नल औए नील को लोग
जिनके डाले पत्थर तैरते थे
विशाल प्रचंड समुद्र पर
हमारे चढाये तो फूल भी
बहकर डूब डूब जाते हैं

मैं समझ नहीं पाता अंतर
तुलसी को दीखते थे
हर ओर राम और सीता
सूर फोड़कर आँख भी
देख लेते हैं उस प्रभु को
नाम देव पशु में भी
देख पाता है उस को
हम मानव को भी
मानव की नजर से
क्यूँ नहीं देख पाते

मैं समझ नहीं पाता हूँ अंतर ......

केदारनाथ"कादर"

Thursday, 2 December 2010

हम जीतेंगे सच की जंग ये आशा कम विश्वास बहुत है


कड़वी यादें भ्रष्टाचार तुम्हारी, उर में आग लगा जाती हैं
विरह्ताप भी मधुर मिलन के सोये मेघ जगा जाती है
तेरे कारण नयन भीगने का हमको अभ्यास बहुत है
हम जीतेंगे सच की जंग ये आशा कम विश्वास बहुत है

धन्य- धन्य तेरी लघुता को, जिसने तुम्हें महान बनाया
धन्य- धन्य है स्नेह कृपणता, जिसने तुम्हे उदार बनाया
जन -जन की अंधभक्ति को इतना ही मंद प्रकाश बहुत है
हम जीतेंगे सच की जंग ये आशा कम विश्वास बहुत है

अगणित शलभों के दल के दल एक ज्योति पर जल मरते
एक बूँद की अभिलाषा को कोटि कोटि चातक तप करते
शशि के पास सुधा थोड़ी है पर चकोर की प्यास बहुत है
हम जीतेंगे सच की जंग ये आशा कम विश्वास बहुत है

नयन खोल देखो नादानी अपनी जो तुमने की उन्माद में
वरना पड़ेगा तुमको खुद सिर धुनना अपने बोये अवसाद में
नित्य देखते अख़बारों में काले धंधों का गुणगान बहुत है
हम जीतेंगे सच की जंग ये आशा कम विश्वास बहुत है

ओ जीवन के थके पखेरू सत पथ पर हिम्मत मत हारो
पंखों में भविष्य बंदी है, तुम मत अतीत की ओर निहारो
क्या चिंता कुछ सुख छूटेंगे, सच पाने का एहसास बहुत है
हम जीतेंगे सच की जंग ये आशा कम विश्वास बहुत है


केदार नाथ "कादर"
http://kedarrcftkj.blogspot.com (posted)

फ़र्ज़

जब तलक फिर से लहू बहाया न जायेगा
मुल्क मेरा बरबादियों से बचाया न जायेगा

किससे से करें शिकवा शिकायत सब हैं चुप
बिन शोर नाखुदाओं को जगाया न जायेगा

बिगड़े हुए हैं मेरे मुल्क के हालत दोस्तों
हमसे क्या इक इन्कलाब लाया न जायेगा

खुदगर्ज़ रहबरों की है बारात मेरे मुल्क में
फ़र्ज़ का सलीका इनको सिखाया न जायेगा

जब तक सुकून से नहीं मुल्क का हर शख्स
सोने का फ़र्ज़ "कादर" निभाया न जायेगा

केदार नाथ "कादर"


Wednesday, 1 December 2010

धर्म

धर्म धर्म तू क्या चिल्लाये

पग पग खुदको ठगता जाये

पत्थर के तेरे मंदिर मस्जिद

पत्थर के भगवान बनाये

धर्म न जाना सच्चा तूने

आग लगाये, खून बहाए

राम रहीम मिलकर रोते है

ईमान, आहें ,आंसू बहाए

देखो इंसा की नादानी

गीता और कुरान जलाये

धर्म एक है बस इतना ही

इंसा- इंसा को गले लगाये


केदारनाथ"कादर"

बाबा

बाबा निराश नहीं है अभी

क्या हुआ आश्रम टूटा

छते गिर गयी हैं न

सामान टूट गया है, बस

पर फिर भी बहुत है अभी

मेरे प्रति बची श्रद्धा उनकी

चलो करते हैं फिर शुरू

कल से अपना व्यापार

केदारनाथ "कादर"

तेरी प्यास न ऐसे बुझेगी, तेरी प्यास अमोल

तेरी प्यास न ऐसे बुझेगी, तेरी प्यास अमोल

क्या ढूढें तट ,ताल ,तलैय्या ,सूखे अधर अबोल

तुझमें हैं रत्नाकर सारे

तुझमें सोलह सूर्य पधारे

मर्म समझ ले अरे! बाबरे!

मन अंतर्पट तू खोल

तेरी प्यास न ऐसे बुझेगी, तेरी प्यास अमोल

तू सुलगे गीली लकड़ी सा

है धुआँ- धुआँ चहुँ ओर

लाल दीखे न अपना तुझको

बटोही, मन की गठरी खोल

तेरी प्यास न ऐसे बुझेगी, तेरी प्यास अमोल

जल में मीन किलोल करें

जन्में प्यासी मर जायें

प्यास रखो सागर के जैसी

क्या तेरे आँसूं का मोल

तेरी प्यास न ऐसे बुझेगी, तेरी प्यास अमोल

केदारनाथ "कादर"

Sunday, 14 November 2010

तुम


तुम में देखी है मैंने-
शैशव सी सरलता
वृद्धत्व की गुरुता
यौवन की तरलता
बिजली सी चपलता

लेकिन फिर भी -
मेरी सीमाओं का मुझे
नहीं बोध रहा अब
मालूम नहीं क्या है
मेरा आत्म परिवर्तन
तुम सिखला दो न !

तुम ही शशि मेरे मन के
तुम सूर्य इस जीवन के
तुम ही प्राण सरीता
तुम ही रात्रि दिवस मेरे

कैसे बनू विरक्त मैं
तेरी ही अनुरक्ति में
कैसे रहूँ तटस्थ मैं
हे ! प्रिये, सिखला दो न

कैसे प्रेम को मैं स्वीकारून ?
कैसे प्रत्यक्ष को झुठला दूं ?
कैसे अप्रत्यक्ष पे मान करूँ ?
उलझन जाल है विकराल
तुम इसको सुलझा दो न !

तेरी हंसी कानों में मेरे
बनकर गीता गूँज रही है
सब ग्रंथों का सार प्रेम है
तेरे वचन उपदेश के जैसे
इन कानों में आने दो न !

तुम से यही निवेदन मेरा
नदिया न रहना जीवन भर
इन तटबंधों को लांघना
जीवनजल बिखराती अपना
मुझको मरुधान बना दो न !



केदार नाथ "कादर"
http://kedarrcftkj.blogspot.com

बालक

आज बालदिवस है, बच्चों को गली में खेलते देखा , और माँ बाप को बच्चों को डांटते हुए भी देखा. बालक मन के कुछ प्रश्न जरुर होते होंगे , आज शायद वहां तक मैं न पहुँच पाऊँ , पर लगता है कि कुछ ऐसे ही सोचते होगा बालक

मैं नन्हा बालक माँ तेरा
तू ही बता मैं खेलूं कहाँ ?
तू ही बता मैं गाऊँ कहाँ ?
तुम मार रहे मेरा बचपन
तुमसे बचने मैं जाऊं कहाँ?
खेलूँ तो कहते मत खेलो
गाऊँ तो मत गाओ यहाँ
कोई कहता चुप हो जाओ
कोई कहता बाहर जाओ
कोई कहता है सिर्फ पढो
सारे आदेश हैं मेरे लिए
तुम ही कहो मैं हूँ कहाँ ?
निज नैसर्गिकता को खोना
होना है समझदार यहाँ
मैं बालक ही अच्छा हूँ
तुम जैसे बुद्धि वालों से
धीरे धीरे प्रेम मारकर
तुम कैसे गढ़ते इन्सान यहाँ ?
मुक्त जी सकूँगा क्या जीवन ?
तू ही बता न मेरी माँ

केदारनाथ" कादर"

दीपावली

एक दोस्त के लिए जो आज मेरे साथ नहीं है, कहीं दूर है और स्वास्थ्य लाभ कर रहा है , बहुत अकेला महसूस करता हूँ उसके बिना , आप ही कहो दिवाली कैसे मनाऊं , कुछ दुआएं मांगता हूँ सबसे उसके हक में ताकि वह जल्दी ठीक हो जाये . मैं जानता हूँ कि दोस्ती बहुत मजबूत रिश्ता है , पर इसे कोई नाम नहीं दे सकता


इस दीप पर्व पर दो नैना
तकते ये राह तुम्हारी हैं
तुम संग रहो तो जलें दीप
वरना ये कहाँ दिवाली है

मुस्कानों से मीठा है पर्व
दन्त पंक्तियाँ जुगनू हैं जैसे
सांसों में पूजा गंध भरी
प्रेमसनी आँखों से दिवाली है

न ख़त आया न बात हुई
दिल धडके है क्या बात हुई
पलपल छिनछिन बढ़ता जीवन
अब मेरी कहाँ दिवाली है

तुम दूर जलो मैं दूर जलूं
हम प्रेम में दीप बने दोनों
दोनों ही मुस्काते लगते हैं
दोनों की आँख में पानी है

तुम खुश रहना देता हूँ दुआ
मेरी भी हंसी तुम हँस लेना
जब फिर आओगी घर में
मानूंगा तभी दिवाली है

भूला मैं नहीं है याद मुझे
मुझसे जो तुम्हारा वादा था
ये दीप पर्व बने प्रेम पर्व
तुम बिन ये कहाँ दिवाली है

केदारनाथ "कादर"

Wednesday, 15 September 2010

एक पाति शब्दों की


आ बैठा हूँ तेरे तट पर
ओ मेरी मन बसनी रजनी
देख रही हो मेरे हृदय में
कलकल करती प्रेम नदी
शब्द पुष्प कुछ चुने हैं मैंने
सब तुमको करता अर्पण
मेरे मुख पर हंसी है तेरी
बिम्ब तेरा मन के दर्पण
लेकिन मन मरू मेरा विकट
जिसमे सिर्फ भटकना मुझको
आज भरे गले से तुमको
सत्य यही करता अर्पण

केदार नाथ "कादर"

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मूक पुजारी

वातायन खोलूं कैसे
प्रेम रश्मियों
तुम्हारे लिए
जबकि गठबंधन
विरह से हो चुका है
मेरे भाग्य की लिपि में
प्रेमांकुर का
प्रस्फुटन नहीं है
गल चुके हैं बीज
मेरे खारी नीर नयन से
मन के वातायन मेरे
अंधकारमय सारे
द्वार खड़े तम प्रहरी
तुम प्रतिवेदन न दो, प्रिये
हार चुका हूँ मैं बाज़ी
प्रेम मिलन ही नहीं है
प्रेम प्रतीक्षा भी है, प्यारी
निश्चय ही तुम देवी रहोगी
मेरे इस मन मंदिर की
और रहूँगा जीवन पर्यंत
"कादर" मैं मूक पुजारी

केदार नाथ "कादर"
http://kedarrcftkj.blogspot.com

परछाई

यकीन मानो
इस आदमखोर मन में
मुझे डर लगता है
बहुत डर लगता है
मुझे लगता है की बस अभी
ये मन सांड सा उकसाएगा
देख कर धमनियों के खून को
जो खौल उठा है तुम्हारे रूप से
चकाचौंध से दंतपंक्तियों की
ज्ञान की आँखें चौंधा गयी हैं
उम्र का बंधन नहीं दीखता
जाने क्यूँ बेड़ियाँ चटक रही हैं
स्वप्न ही तो है ये मगर फिर भी
डर रहा हूँ अन्तः तिमिर से
इस में ही महसूस करता हूँ तुम्हें
आने पर दीपक जीवन में
तुम बन जाओगी परछाई
और मैं जानता हूँ -
तुम वहीँ होंगी -उसके साथ
पर दीपक की उपस्थिति में ही
उसी ने तो हरा है इस सुख को
क्या तुम जानती हो परछाई.

केदार नाथ "कादर"
http://kedarrcftkj.blogspot.com

लेम्प पोस्ट

इस शहर के नंगेपन पर
तुम चाहो तो आंसू बहा लो
चाहो तो काली कमाई से
एक रात को एक देह पा लो

क्या तुम नहीं जानते,
घर में सोते हुए भी,
तुम हो बलात्कारी
बेचकर शर्म जब हुंकारते हो
तुम सांड की तरह, पूछ लो

तुम्हारे दुष्कर्म से ही तो
औरत पहुंचती है अस्पताल
गर्भपात के लिए -
तुम्हारी ही न्योछावर कमाई ले

तुम डूबते रहते हो
रिश्तों की नदी में वैधता खोजते
तुम भूल जाते हो अक्सर
तुम्हारे अपने ही किनारे

मैं सोच का लेम्प पोस्ट -
इसीलिए रख आया हूँ
तुम्हारे मनांगन में
ताकि फिर न लिखूं ऐसी कविता

केदार नाथ "कादर"
http://kedarrcftkj.blogspot.com

चिड़िया


वह चिड़ियों को दाना डालकर पालती थी
खुश रहती थी फुदकती चिड़ियों की तरह
उसे मालूम न था, क्या है चिड़िया होना?
बहुत बड़ा गुनाह, जीवन में चिड़िया होना
इसलिए वह पीड़ित थी, चिड़िया होने से
कौन समझ सकता है, उसकी अपनी पीड़ा
क्या कवि? जो कभी चिड़िया नहीं बना
वह तो रटता रहा है , चिड़िया पूज्य है
चिड़िया फडफड़ाती है कटे हुए पंखों से
जो बंधे हैं रिश्तों से और अधिकारों से
कोई नहीं समझता चिड़िया की तड़पन
चिड़िया भूख से पिंजड़ा नहीं बदलती
उसे अखरती है, सामाजिक बेरुखी
इसलिए चिड़िया चीखती है अब जोर से
यही गुनाह काफी है उसे मारने के लिए

केदार नाथ "कादर"

http://kedarrcftkj.blogspot.com

मृतात्मा

मेरा ये देश गुलामी में भी न मरा
मेरा देश कालजयी बना रहा अबतक
लेकिन अब मुझे लगने लगा है डर
अनेक प्रकार के अस्त्र बनाये जा रहे हैं
अनेक प्रकार के बम्ब बनाये गए हैं
हाँ, महाभारतकाल से भी भयानक
क्योंकि तब सिर्फ शरीर मारे जाते थे
लेकिन अब आधुनिकता के नियम
अठारह दिन की महाभारत से बचे
इन्सान की आत्मा को, मारने के अस्त्र
साबित हो रहे हैं आज के युग में
इसलिए कृष्ण भी नहीं आ पाए, बचाने
आज के आधुनिक मानव को
जो जिए जा रहा है मृतात्मा बनकर

केदार नाथ "कादर"
http://kedarrcftkj.blogspot.com

चित्र

तुमने ही तो कहा था एक दिन-
तुमने देखी हैं अजंता एलोरा गुफाएं
अपने यौवन काल की शुरुआत में
तुम्हारा आत्मिक सम्बन्ध है उनसे
तुम ने ही तो कहा था, तुम चित्र हो
उन्हीं दीवारों से उठाया और जीवंत
मेरी पारखी आँखों ने मान लिया था
किन्तु -
इस पूर्ण यौवन में विरह ने
कर दिया है तुम्हे विरूपित
तुम अपनी ओर से करो
अथक प्रयत्न देह सुन्दर दरसाने के
लेकिन मैं जानता हूँ, चित्रे
तुम्हें , तुम्हारी देहयष्टि से नहीं
वरन, तुम्हारे आत्मिक शृंगार से
अँधेरे के शस्त्र, कर रहे हैं घायल
लहूलुहान है ये तुम्हारा मन
आश्रयदाता द्वारा तुम उपेक्षित
गुंजायमान तुम्हारी मौन चीखें
मैं कवि हूँ , मैं ही महसूसता हूँ ये
तुम कहो तो ये पीड़ा पी सकता हूँ
मैं ही हूँ जो चिरंतन प्रेम पूरित
तुम्हे हृदय में धर सकता हूँ

केदार नाथ "कादर"
http://kedarrcftkj.blogspot.com

देह का महाभारत

आदर्श, मानवता, प्रेम
केवल हैं मरे हुए शब्द
जो कुचले जा रहे दिन रात
धर्म के भारी ट्रक के नीचे
धर्म मानो देह कोई रूपसी की
दिन रात खोदी जाती, शिशनों से
योनि के ताज़े रक्त से रंगे वस्त्र
इस कलयुग के महापुरुषों के
वेश्या के कोठों से कालेज
नपुंसक शिशनधारियों की भीड़
आते जाते ताकती रहती है
चिकनी खंबे सी गोरी जांघें
आँखों में अनेक ख्वाव पाले
उलटी सीधे घिसने के
चिपक कर रौंदने के लिए
अब धर्म शास्त्र जला दो
पढने दो इन्हें कोकशास्त्र
ताकि ख़तम हो सके इनकी
देह का ये भीषण महाभारत

केदार नाथ "कादर"
http://kedarrcftkj.blogspot.com

अंगूठा

तुम मुझे वोटर कहकर
गाली न दो मतदाता को
मैं तुम पर गुस्सा नहीं करूँगा
मुझे तुम पर दया आती है
तुम निर्वसन हो चुके हो
तुम्हारी उगाई घृणा घास पर
जल्द ही तेजाब बरसने वाला है
इसलिए-
मैं तुम्हारे अन्याय और दमन को
इस जगह से मिटाने के लिए
सोच रहा हूँ बनूँ फिर गोडसे
लेकिन तुम महात्मा नहीं हो
इसलिए मैं मारूँगा तुम्हें
डुबोकर, भरे हुए मूत्रताल में
उसी वोटर के जिसे तुम
समझते हो शोभा पलंग की
बस अंगूठा लगाने के बाद


केदार नाथ "कादर"
http://kedarrcftkj.blogspot.com

मिठाई

तुम क्या सुनोगे मेरी कथा
मैं औरत, मेरे औरतपन की कथा
आँखें खोली, बड़े से महल की
छोटी सी कोठरी में, नौकर की
मैं माँ माँ कहकर नहीं रोई थी
रोई थी मालिक मालिक कहकर
मैं उग आई थी जंगली घास सी
नोकीले सिरे लिए, अपनी गरीबी के
बर्तन धोते, कपडे धोते , धीरे धीरे
बन रही थी दूध वाली गैय्या
"पलंग पर आओ" से जाना मैंने
मेरी उम्र बढ़ जाने का राज
मैं तो तितलियाँ ही पकड़ती थी
पर आज मालिक ने तितली कहा
मसल कर नन्हे उरोज मेरे -
जगाई मेरी प्यास और बुझाई अपनी
ख़राब भी मैं ही हुई और
जुल्म भी मुझ पर ही हुआ
अब मैं महल के हरम में हूँ
परोसी जाती हूँ मिठाई जैसे
राजनीतिज्ञ मेहमानों के सामने
बदले में मिलते हैं हरे हरे नोट
साहब के पास बहुत नोट हैं
मेम साहब के पास भी हैं
सोचती हूँ क्या ये भी मिठाई हैं ?

केदार नाथ "कादर"
http://kedarrcftkj.blogspot.com

मछलीमार

जब जगना के साथ रमिया

अफसर बाबू के दफ्तर गयी थी

तब रमिया का चेरा ढँका हुआ था

जगना को बाबू ने "हाँ" कह दिया था

जगना को मछली पालन के लिए

सरकारी अनुदान की दरकार थी

बाबू ने रमिया को घूरते हुए कहा था

मछलियों की बदबू आती है तुमसे

कई चक्कर लगाने के बाद ही

उन्नत मछली बीज मिलना तय हुआ

रामियाँ के बार बार बाबू से मिलने पर

अफसर बाबू को मछली बास भा गयी

गरीब रमिया बाबू के बिसतर पे

और तालाब में मछलियाँ आ गयीं

अब अफसर बाबू मछलीमार हैं

मछलियाँ शासन की शिकार हैं

केदार नाथ "कादर"

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खद्दर

बच्चों को अध्यापक विद्यालय में

एक नया इतिहास शीघ्र ही पढ़ाएंगे-

माननीय नेता जी पर, विपक्ष द्वारा

१०० से अधिक जूठे केस गढ़े गए-

उनके जीवन काल में,

नेताजी बड़े ही संघर्षशील थे

पहले उन्होंने दरवाजे पर

अपनी माँ का गला रेता

फिर जायदाद के लिए

सगे भाई का खून किया

मौका पाते ही, कमरे में

सगी बेटी से बलात्कार किया

इसके बाद भी थके नहीं ....

वे खद्दर पहन कर चल पड़े

देश की संसद की ओर

केदार नाथ "कादर"

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तेंतीस प्रतिशत

मेरा बेटा रिपोर्ट कार्ड दिखाने लाया

मैंने देखा उसके नंबर बहुत कम हैं

मैंने पूछा- क्या कारण है इसका ?

बेटा मुस्कुराकर घूरते हुए बोला -

कम कहाँ हैं? तेंतीस प्रतिशत से ज्यादा हैं

वही तो चाहिए पास होने के लिए

यही तो निर्धारित है नियम द्वारा

मुझे लगा प्रश्न मुहँ चिढ़ा गया

अवलोकन किया मैंने चहुँ ओर

ओह , ये अव्यवस्था क्यूँ है ?

आज समझ में मेरी आया

तेंतीस प्रतिशत वाले ही लोग

आजकल सत्ता को चला रहे हैं

हर क्षेत्र में ही तेंतीस प्रतिशत

जैसे मानक , वैसे ही परिणाम

इस लिए देश में इन्सान और

प्रगति भी तेंतीस प्रतिशत ही है

बाकि हैं तो नेता और दलाल

दलित और शोषित शिकार

केदार नाथ "कादर"

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