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Sunday, 14 November 2010
तुम
तुम में देखी है मैंने-
शैशव सी सरलता
वृद्धत्व की गुरुता
यौवन की तरलता
बिजली सी चपलता
लेकिन फिर भी -
मेरी सीमाओं का मुझे
नहीं बोध रहा अब
मालूम नहीं क्या है
मेरा आत्म परिवर्तन
तुम सिखला दो न !
तुम ही शशि मेरे मन के
तुम सूर्य इस जीवन के
तुम ही प्राण सरीता
तुम ही रात्रि दिवस मेरे
कैसे बनू विरक्त मैं
तेरी ही अनुरक्ति में
कैसे रहूँ तटस्थ मैं
हे ! प्रिये, सिखला दो न
कैसे प्रेम को मैं स्वीकारून ?
कैसे प्रत्यक्ष को झुठला दूं ?
कैसे अप्रत्यक्ष पे मान करूँ ?
उलझन जाल है विकराल
तुम इसको सुलझा दो न !
तेरी हंसी कानों में मेरे
बनकर गीता गूँज रही है
सब ग्रंथों का सार प्रेम है
तेरे वचन उपदेश के जैसे
इन कानों में आने दो न !
तुम से यही निवेदन मेरा
नदिया न रहना जीवन भर
इन तटबंधों को लांघना
जीवनजल बिखराती अपना
मुझको मरुधान बना दो न !
केदार नाथ "कादर"
http://kedarrcftkj.blogspot.com
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bahut acchi rachna kedar ji....
ReplyDeleteAbhishek ji,Shivank ji,
ReplyDeleteBahut bahut aabhar aapka.