इस शहर के नंगेपन पर
तुम चाहो तो आंसू बहा लो
चाहो तो काली कमाई से
एक रात को एक देह पा लो
क्या तुम नहीं जानते,
घर में सोते हुए भी,
तुम हो बलात्कारी
बेचकर शर्म जब हुंकारते हो
तुम सांड की तरह, पूछ लो
तुम्हारे दुष्कर्म से ही तो
औरत पहुंचती है अस्पताल
गर्भपात के लिए -
तुम्हारी ही न्योछावर कमाई ले
तुम डूबते रहते हो
रिश्तों की नदी में वैधता खोजते
तुम भूल जाते हो अक्सर
तुम्हारे अपने ही किनारे
मैं सोच का लेम्प पोस्ट -
इसीलिए रख आया हूँ
तुम्हारे मनांगन में
ताकि फिर न लिखूं ऐसी कविता
केदार नाथ "कादर"
http://kedarrcftkj.blogspot.com
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