यकीन मानो
इस आदमखोर मन में
मुझे डर लगता है
बहुत डर लगता है
मुझे लगता है की बस अभी
ये मन सांड सा उकसाएगा
देख कर धमनियों के खून को
जो खौल उठा है तुम्हारे रूप से
चकाचौंध से दंतपंक्तियों की
ज्ञान की आँखें चौंधा गयी हैं
उम्र का बंधन नहीं दीखता
जाने क्यूँ बेड़ियाँ चटक रही हैं
स्वप्न ही तो है ये मगर फिर भी
डर रहा हूँ अन्तः तिमिर से
इस में ही महसूस करता हूँ तुम्हें
आने पर दीपक जीवन में
तुम बन जाओगी परछाई
और मैं जानता हूँ -
तुम वहीँ होंगी -उसके साथ
पर दीपक की उपस्थिति में ही
उसी ने तो हरा है इस सुख को
क्या तुम जानती हो परछाई.
केदार नाथ "कादर"
http://kedarrcftkj.blogspot.com
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