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Wednesday, 15 September 2010

परछाई

यकीन मानो
इस आदमखोर मन में
मुझे डर लगता है
बहुत डर लगता है
मुझे लगता है की बस अभी
ये मन सांड सा उकसाएगा
देख कर धमनियों के खून को
जो खौल उठा है तुम्हारे रूप से
चकाचौंध से दंतपंक्तियों की
ज्ञान की आँखें चौंधा गयी हैं
उम्र का बंधन नहीं दीखता
जाने क्यूँ बेड़ियाँ चटक रही हैं
स्वप्न ही तो है ये मगर फिर भी
डर रहा हूँ अन्तः तिमिर से
इस में ही महसूस करता हूँ तुम्हें
आने पर दीपक जीवन में
तुम बन जाओगी परछाई
और मैं जानता हूँ -
तुम वहीँ होंगी -उसके साथ
पर दीपक की उपस्थिति में ही
उसी ने तो हरा है इस सुख को
क्या तुम जानती हो परछाई.

केदार नाथ "कादर"
http://kedarrcftkj.blogspot.com

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