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Wednesday, 15 September 2010

मूक पुजारी

वातायन खोलूं कैसे
प्रेम रश्मियों
तुम्हारे लिए
जबकि गठबंधन
विरह से हो चुका है
मेरे भाग्य की लिपि में
प्रेमांकुर का
प्रस्फुटन नहीं है
गल चुके हैं बीज
मेरे खारी नीर नयन से
मन के वातायन मेरे
अंधकारमय सारे
द्वार खड़े तम प्रहरी
तुम प्रतिवेदन न दो, प्रिये
हार चुका हूँ मैं बाज़ी
प्रेम मिलन ही नहीं है
प्रेम प्रतीक्षा भी है, प्यारी
निश्चय ही तुम देवी रहोगी
मेरे इस मन मंदिर की
और रहूँगा जीवन पर्यंत
"कादर" मैं मूक पुजारी

केदार नाथ "कादर"
http://kedarrcftkj.blogspot.com

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