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Monday, 30 August 2010

गीत

दोषी हूँ तो बस इतना ही

मैंने तुम से प्रेम किया है

मचल रहा हूँ गढ़ने जीवन

टेक लगा तुमको तरुणाई

शब्दों के इस राजमहल में

कितने ही दर्पण थे समाये

लेकिन मुझे किसी दर्पण में

कहाँ मिली मन की गहराई

तुम आये तो शब्द सजे हैं

ली है कविता ने अंगड़ाई

रूपरंग के फूल खिले हैं

गूँज रही है फिर शहनाई

आज भले कह लो कुछ भी

पर कल सारा विश्व कहेगा

मेरी रुखी सी कविता में

"कादर" प्रेम की वर्षा लाई

केदार नाथ "कादर"

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