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Monday, 30 August 2010

ताकि जी सकूं फिर


आज फिर जी कर रहा है

बहुत दिनों के बाद कि-

मैं और तुम बैठें फिर वहीँ

उसी खंडहर में, जहाँ बैठते थे

घंटों बेवजह हम पीठ सटाकर

आज तुम न जाने कहाँ खो गई हो ?

घर, बच्चे, ये काम ? वो काम ?

मानो पूरा जीवन एक कार्यशाला

मशीनी जज्बात, बस थोड़ी सी बात

तुम अपनी तंग गली में खुश

मैं अपनी तंग गली में, यही लगता है

ये गली तो तुम्हारी और मेरी ही थी

ये सब जंगल जाल कहाँ से आ गए ?

तुम्हारी इस अवस्था पर-

मैं दुखी हूँ, तुम्हारे लिए

और क्षुब्द हूँ, स्वयं के लिए

इस के लिए तो प्रार्थना नहीं थी

ऐसा बीज कब वो दिया हमने ?

अब चाहकर भी ये खरपतबार

हटाये नहीं हटा पाता हूँ मैं

एक ही चारदीवारी में अन्जान

एक ही बिस्तर पर पड़े अनजान

लोग हमें "कपल" कहते हैं

लेकिन हम "डिफरेंट यूनिट " हैं

जी रहे हैं बस अपनी ही

"एंसीलरी इंडस्ट्री" के लिए

पीठ तो आज भी मिल जाती है

एक साथ सोये हुए , लेकिन-

वो बिना बोले की बतियाहत,

कहीं खो गई है , तुम्हारी-हमारी

इसलिए फिर चाहता हूँ बैठना ,

पीठ सटाकर , ताकि जी सकूं फिर

केदार नाथ "कादर"

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