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Monday 30 August 2010

अलगाववादी

अब वे मुझपर चाहकर भी

आरोप नहीं लगा सकते

कि मैं लोगों को भड़काता हूँ

मैं देशद्रोही और अलगाववादी हूँ

मैं आम आदमी को

मजबूत डंडे में झंडा

लगाकर हाथ थमा आया हूँ

ताकि एक दिन झंडे के डंडे का

वे सही इस्तेमाल कर सकें

अपनी आत्म रक्षा में

सरकार कि मुहीम के खिलाफ


केदार नाथ "कादर"

अब मैं नेता बन गया हूँ

उसने कल रात बिस्तर पर

मुझसे कहा था -बाबू ,

अब पहले जैसा प्यार नहीं है

तुम्हारी बातों और आँखों में

तुम तो बहुत क्रांति का झंडा

लगाये फिरते थे अपने सीने पे

आग लग जाती थी कानों में

शोले बरसते थे आँखों से

अब तुम्हे क्या हो गया ?

तब बस स्खलित होते यही कहा था

अब मैं नेता बन गया हूँ

केदार नाथ "कादर"

केदार नाथ "कादर"

झंडा झुक जायेगा

आज की ताज़ा खबर

सरकार ने कहा है कि-

सरकार शीघ्र ही

पडोसी देश कि मदद करेगी

सामान भेजकर बाढ़ पीड़ितों को

ताकि दोनों देशों में विश्वाश बढे

दोनों ओर से वार्ता आगे बढ़ेगी

सद्भावना की बड़ी आवश्यकता है

संवेदनाहीन दोनों देशों के नेता

गाँव गाँव में केम्प लगवाएँगे

धरम पूछकर राशन बाँटेंगे

स्विस बैंकों के खाते बड़े होंगे

काली किताब में चंद पन्ने जुड़ेंगे

आरोपों के और नए घोटालों के

चार छह लोग मरेंगे कर्फ्यू में

कुछ पुलिस के शिकार बन के

कुछ भूख का शिकार बन के

कुछ हवस का शिकार बन के

बाद में पुलिस और सरकार

उन्हें अलगाववादी घोषित कर देगी

एक सर्वदलीय कमेटी बनेगी

न्यायालय स्वयं संज्ञान लेगा

जाँच होगी केश भी चलेगा

भ्रष्टाचार और घोटाले का

जज के खाते में कुछ माया आएगी

केस में तारीखें मिलती रहेंगी

फिर आम आदमी छला जायेगा

नेता स्वर्गवासी हो जायेगा

झंडा झुक जायेगा उसके सम्मान में.

केदार नाथ "कादर"

ताकि जी सकूं फिर


आज फिर जी कर रहा है

बहुत दिनों के बाद कि-

मैं और तुम बैठें फिर वहीँ

उसी खंडहर में, जहाँ बैठते थे

घंटों बेवजह हम पीठ सटाकर

आज तुम न जाने कहाँ खो गई हो ?

घर, बच्चे, ये काम ? वो काम ?

मानो पूरा जीवन एक कार्यशाला

मशीनी जज्बात, बस थोड़ी सी बात

तुम अपनी तंग गली में खुश

मैं अपनी तंग गली में, यही लगता है

ये गली तो तुम्हारी और मेरी ही थी

ये सब जंगल जाल कहाँ से आ गए ?

तुम्हारी इस अवस्था पर-

मैं दुखी हूँ, तुम्हारे लिए

और क्षुब्द हूँ, स्वयं के लिए

इस के लिए तो प्रार्थना नहीं थी

ऐसा बीज कब वो दिया हमने ?

अब चाहकर भी ये खरपतबार

हटाये नहीं हटा पाता हूँ मैं

एक ही चारदीवारी में अन्जान

एक ही बिस्तर पर पड़े अनजान

लोग हमें "कपल" कहते हैं

लेकिन हम "डिफरेंट यूनिट " हैं

जी रहे हैं बस अपनी ही

"एंसीलरी इंडस्ट्री" के लिए

पीठ तो आज भी मिल जाती है

एक साथ सोये हुए , लेकिन-

वो बिना बोले की बतियाहत,

कहीं खो गई है , तुम्हारी-हमारी

इसलिए फिर चाहता हूँ बैठना ,

पीठ सटाकर , ताकि जी सकूं फिर

केदार नाथ "कादर"

घास

घर के बगीचे में हरी हरी घास

देखकर कुछ सोचा अनायास

तुम और मैं दोनों ही एक से

एकसा ही है अपना स्वभाव

मरते मरते फिर जी उठना

मेरा तुम्हारा एक सा भाग्य

सदैव ही निर्भर दूसरों पर

दया से बढे, नहीं तो उखाड़ फेंके

हाँ, तुम और मैं एक ही जैसे

समान है तुम्हारा मेरा अस्तित्व

उगने , बढ़ने और जीने का

ताकि रौंदा जा सके किसी दिन

इसी लिए संरक्षित हैं हम तुम.

केदार नाथ "कादर"