Total Pageviews

Tuesday, 4 September 2012

आँखें




जब भी आती हैं ख्यालों में, दो कजरारी तुम्हारी आँखें
कितने मधुर फूल खिला जाती हैं, चंचल तुम्हारी आँखें

यूँ लगता है खामोश हैं, आईने सी ये तुम्हारी आँखें
कैसी कैसी बातें बनाती हैं, ये वाचाल तुम्हारी आँखें

ढलते ही शाम चरागों सी, जलती हैं ये तुम्हारी आँखें
मेरी हर राह को रोशन, करती हैं ये दो तुम्हारी आँखें

सनम मुझसे दूर हो तुम, मेरे पास है तुम्हारा चेहरा
ढूँढती रहती हैं तुमको ही, हर पल ये हमारी आँखें

हम तो सोते हुए रखते हैं, सदा खुली ये अपनी आँखें
जाने किस रोज लौट आयें, मुझतक ये तुम्हारी आँखें

हमें हर गीत गाते हुए बस, तुम ही याद आते हो प्रिय
अक्सर उठ जाती हैं इस सारे शहर की मुझ पर आँखें

तुमको इन आँखों में मैंने बंद, सपने सा अपने रखा है
"कादर" तुम्हारे साथ ही होंगी, बंद सनम ये हमारी आँखें


केदारनाथ "कादर"

Prarthana

हे!प्रभु करो करम मिले शांति परम
मेरे जीवन धारण का यही बनें धर्म

कण कण में तेरा सब पाएं दर्शन
समझे सब देह धरण का पवित्र धर्म

सब नेह रखें संसार में एक दूजे से
करें सब जग में पालन भ्रात्री धर्म

मानव का धर्म धरा पर केवल है प्रेम
सब मन से निभाएं ये प्रेम धर्म

यहाँ कोई गैर नहीं सब अपने हैं
मानव हेतु यही सबसे ये बड़ा धर्म

रखो, सूर्य, हवा, जल सम तुम मन
रहे मन में न बैर यही युग का धर्म

"कादर " प्रभु से विनय कर जोर
सभी थाम चलें डोर बढे प्रेम धर्म


केदारनाथ "कादर"

Wednesday, 29 August 2012

स्वांस स्वांस परिवर्तन होता, रूप बदलता तेरा

पग पग पर घेरा मौत का, कहता है मन मेरा

कितनी पोथी पढ़ी समझ में केवल इतना आया
है जो नहीं पर दीखे, माया माने है मन मेरा

केवल रूप बदल जाता, शास्वत कुछ न भाई
आत्मा संग करो सगाई, ये कहता है मन मेरा

कितने जन्म के बिछड़े हैं, नहीं स्मरण है भाई
यही समय है काज सजा लो, कहता है मन मेरा

सीधा किया, पर सीधा नहीं, तुम भी जानो भाई
उलट के देखो अंतर में, यही कहता है मन मेरा

अब न बना तो फिर न बनेगा, व्यर्थ जीवन पाना
साधो संग सतगुरु का प्राणी, कहता है मन मेरा

पाकर जुगत जुगाड़ बिठा , ये जगत सरायखाना
खुद को खोकर पाओगे "कादर" कहता मन मेरा



केदारनाथ "कादर"

कैसे कलम से रास रचाऊँ प्रिये !




अब कैसे कविता लिखूँ प्रिये !
ये समझ नहीं मुझे आता है,
देहरी से बाहर जाकर देखो,
समय विभत्स चित्र दिखाता है,
क्या तुम ये चाहती हो प्रिये,
मैं कायर कवि कहाऊँ कभी,
रख लूं निजानुभुती को बंद,
कलम से रास रचाऊँ प्रिये !

भूखी गरिमा की बात करूँ ,
मर्यादा भंग पर लेख लिखूँ,
या बाप के खोट को छोड़ ,
उभरे स्तनों पर शेर लिखूँ,
दृष्टी खोट पर मूक रहूँ,
नेताओं पर मैं न लिखूँ,
शासन के भय से डर जाऊँ,
कलम से रास रचाऊँ प्रिये !

घर की दहलीज में सहमे हैं,
उन्हें न दूँ शब्दों का संबल,
कैसे अधनंगे मांसल तन को,
मैं कह दूँ कोई सुमन सुंदर,
कहकर बहन जो छलते हैं,
कैसे न उनपर कटाक्ष करूँ,
कैसे संग शयन करूँ तेरे,
कलम से रास रचाऊँ प्रिये !

झीने कपड़ों में जब कोई,
राशन की लाईन में युवती हो,
जिसके उजले तन पर आकर,
हर काली नजर ठहरती हो,
जब पिता की धुँधली आँखों में,
चिंताओं खिचड़ी पकती हो,
शब्दों की चिता सजाकर मैं,
कलम से रास रचाऊँ प्रिये !

हर गाँव पर गिद्ध दृष्टी गाढे,
घर उजाड़ , मकान देने वाले,
लोगों की कितनी भीड़ बढ़ी,
कैसे न उन्हें जगाऊँ प्रिये !
अब गाँव के बच्चे सहमे हैं,
और शहर हुँकारे भरता है,
कामुकता को कहूँ कविता,
कलम से रास रचाऊँ प्रिये !


अब गौरैया गायब हैं घर से,
गिद्धों का शोर उभरता है,
बनता जाता है शहर मेरा,
शमशान जीवित लाशों का,
खुद माँ जहाँ सौदा करती हो,
निज तन का घर की खातिर,
मैं ऐसे शासन पर मौन रहूँ,
कलम से रास रचाऊँ प्रिये !


जब वातायन के शीशों पर,
जवानी प्रेम पत्थर फेंके,
और सहमकर युवती रोये,
तब कैसे न बाहर निकलूँ,
कैसे सहवास की साधों का,
मैं न करूँ प्रतिकार प्रिये !
कैसे न सत्य समझकर मैं,
कलम से रास रचाऊँ प्रिये !


व्रत उपवासों में उलझे हैं,
जो स्वयं को न जान सके,
केवल शब्दों की रेख चले,
जीवन अध्यात्म न जान सके,
कैसे जीवन बह जाने दूँ ,
सहवास की काली कीचड़ में,
कैसे सौंदर्य तन का निरखूँ ,
कलम से रास रचाऊँ प्रिये !


मैं चेतन हूँ ये कहता हूँ,
कैसे न उन्हें जगाऊँ प्रिये,
अगन लगी है चहुँ ओर,
कैसे मन समझाउं प्रिये!
है कवि धर्म कविता कहना ,
जो सत्यभान करवाए प्रिये!
कैसे बाहुपाश में बाँधकर,
कलम से रास रचाऊँ प्रिये !







केदारनाथ "कादर"

Monday, 23 April 2012






मेरा ही  राज़दार  मुझको आज छोड़ गया
आज मेरा भी भरोसा   कहूँ तो तोड़ गया   


ख्वाव मैंने तो सजाये थे उम्र भर के लिए 
दोस्त चलकर कदम चार मुझे छोड़ गया


बे-वजह हँसना मुनासिब नहीं होता हरदम
बात कहकर सिसकता मुझे वो छोड़ गया 


बात कोई जो कही होती मना ही लेता मैं
दिल का सरताज चुपचाप मुझे छोड़ गया


मेरे ख्वाबों में रहा कोई किराया न दिया
मैंने जिस घर में रखा वही घर तोड़ गया


मैं भटकता रहूँ लफ़्ज़ों के घने जंगल में
"कादर" ख्याल मुझको अकेला छोड़ गया


केदारनाथ "कादर"
 


क्या मन नहीं होता औरत का
केवल जिश्म ही भाता है तुम्हें
अनेक बार कहा है मैंने तुमसे
मुझे सोते से मत जगाया करो
लेकिन तुम आते हो रात गए
पीकर   गन्दी बदबू भरी शराब
तब तुम्हारा प्यार जाग पड़ता है
अचानक या ये तुम्हारी हवस  है 
जो ले आती है मेरे जिश्म तक
तुम्हारे शरीर के, प्यासे पुरुष को
तब तुम्हें मैं अचानक ही क्यों -
लगने लगती हूँ प्यारी और सुंदर
परन्तु, प्यार का ज्वर भी कितना
स्खलन तक तुम्हारे. और फिर-
पीठ फेरकर सो जाते हो तुम
मारते हुए खर्राटे बे-सुध होकर
मुझे नहीं भाता व्यवहार तुम्हारा
लेकिन अब करूँ भी तो क्या?  
मैं  कोई ख़रीदा गया पुतला हूँ ?
या तुम्हारे समाज की मुहर लगी 
वासना की प्रतिपूर्ति की मूरत
ये तुम्हारा घर है ,मानती हूँ
मैं क्या चौकीदार हूँ , बच्चों की
जो तुम छोड़ जाते हो कोख में
और पालती हूँ मैं न चाहकर भी
बड़े मजबूत हो तुम , कहते हो
आओ पालकर देखो  और जियो
चार दिन ये जिंदगी औरत की


केदारनाथ"कादर"
 



एक भूखे की ताड़ में
ताक लगाये बैठे हैं 
एक घर के सामने
सूखे पेड़ पर कई
तेज़ नज़र गिद्ध
पैनी चोंच कौआ
मटमैली सी चीलें
आँगन में कुत्ता


सब इंतज़ार में हैं
भूखे की मौत की
ताकि भूख मिटे
इनकी भी कुछ 
शांत हो तांडव
सिकुड़ी आंतड़ियों का


कुत्ते ने पानी फैलाया
गिद्ध ने गर्दन दबाई
कौए ने आँख फोड़ी
चींटियों ने सभा बुलाई
चील जोर से चिल्लाई
आज हम नहीं मरेंगे


चिपका मांस खाया
चील और गिद्ध ने
कुत्ते ने चाबी हड्डियाँ
संस्कार के नाम पर
सामाजिक कार्यकर्ता
शाम भर पेट खायेंगे


अगले चुनावों में
स्थानीय नेता हमारे
आम आदमी हेतु
अपने संकल्प दोहराएंगे
आदमी की दुनियाँ में 
जंगल राज चलाएंगे


केदारनाथ"कादर"   

Sunday, 22 April 2012



तुम अर्धांगिनी हो मेरी
मुझे गर्व है तुम पर
मैंने देखा है अक्सर तुम्हें
देर रात तक खटते हुए
सूरज से पहले उठते हुए
ताकि जा सकें हम भी
अपने दफ्तर ,बच्चे स्कूल
और तुम अपने काम पर


मुझे अक्सर लगता है
ये जैसे जिंदगी मशीन है
और तुम मेरी ऊर्जा हो
तुम बिन जीवन निरर्थक
लम्बी यात्रा भर होता मेरा
तुम न जाने क्या क्या हो
मित्र, माँ, पत्नी,सलाहकार
सच में जीवन हो साकार


मैंने देखा है तुम्हारा रोना
और चुप रह जाना अक्सर
मुझे भी दुःख होता है जब
पूरा नहीं कर पाता मैं कोई
तुमसे किया अपना वादा
और तुम बस मुस्कुराती हो
मेरे जीवन की कमियों पर
मैं पूर्ण हो जाता हूँ तब
जब कहती हो "जाने दो"
और जुट जाती हो फिर
दुगुने प्यार से परिवार में
सींचने नई ख़ुशी की खेती
अपने अथक परिश्रम से तुम


हाँ, मैं न्याय नहीं कर पाता हूँ
तुम्हारे इस सम्पूर्ण समर्पण से
तुम्हारे उड़ेले अतुलनीय प्रेम से
तुम्हारे ससक्त अथक परिश्रम से
ये भी तुम्हारा प्रेम ही है न
जो चुरा लिया है मैंने तुमसे
पर आज सच कहता हूँ, प्रिये !
धन्य हो गया है जीवन मेरा
पाकर तुम्हें अपना जीवन साथी


केदारनाथ "कादर



आदमी घर लौटने से डरता है
सारे सारे दिन खटने के बाद भी
घर में चूल्हा औंधा ही रहेगा
ये अमरीकी हमले से बड़ा डर है
घर के खाली लोटे और थाली
बगावत आज जरुर कर देंगे
आदमी का पेट तो सम्हाल ले
पर औलाद का पेट क्या करे
आज  ड्रोन के हमले होंगे ही
बासनों की अनुगूंज अभी से
आत्मा को बहरा कर रही है


केदार नाथ "कादर"
 



मेरे नन्हे मसीहा प्यारे
मैं तुझ पे वारी जाती हूँ
तेरा एहसान है मुझपर
तू बन के हाथ आया है


मेरा  जो फ़र्ज़ था माँ का
नन्हे वो तूने निभाया है 
निवाला मैं खिलाती तुझे
वो मुझे तूने खिलाया है


तेरा एहसान है माँ पर
ये तेरा रिश्ता निराला है
मेरे भी भाग्य अच्छे थे
फ़रिश्ता मैंने पाया है


केदारनाथ"कादर"
बहुत सी रचनायें  हमने मंच पर साँझा की, जो हमारे समाज पर आधारित थी . हमने जयादातर रचनाओं में महिला की दशा का वर्णन किया  ...उस पर होते अत्याचार पर चर्चा की. वे हमारे समाज का अभिन्न हिस्सा हैं..ठीक वैसे ही जैसे की पुरुष है . आज उसी पुरुष के नजरिये  एक  रचना आप सभी सुधि जनों को समर्पित करता हूँ...आप का समर्थन चाहूँगा  :-




किसी ने नहीं देखा है कभी
मर्द का चिल्लाता हुआ दर्द
वह  सहमा सा ही रहता है
एक पूँछ लगे हुए कुत्ते सा
अपनी ही  टाँगों के बीच में
हर एक उसका रिश्ता यहाँ
करता है उसपे तीखा वार
बनकर जैसे तेज़ धार तलवार 


वह अक्सर बहुत सहता है
और सहमता है वह खुद ही
होने पे अपने मर्द का दर्जा
बनता है  रोज़ ही शिकार
वह कभी बहन के हक से
वह कभी माँ के प्यार से
कोरे अधिकार से पत्नी के 
कभी बच्चों के ख्वाव से


रहता है  निरीह जानवर सा
वह सदा स्नेह का भिक्षुक 
जीता एक अनचाही जिंदगी
अकेला वह होते हुए शिकार
अक्सर ही तन और मन पे
वह झेलता है रोज़ कितने बाण
फिर भी कहते हैं लोग यही
मर्द को दर्द होता  ही नहीं

अक्सर मंचों से मैं सुनता हूँ
महिला होने के अभिशाप का प्रलाप  
जो मारता दबाता है पुरुष को
जो ठहराता है दबंग और दानव
जबकि सच तो ये भी है कि
परुष पग पग छला जाता है
पुरुष ही नहीं बनाता शिकार
उसका भी शिकार किया जाता है


केदारनाथ "कादर"

Wednesday, 21 March 2012

संसद में गरीबी रेखा और गरीबों का बहुत ही भद्दा मजाक उड़ाया जा रहा है .

हैरानी होती है जब आंकड़ों के गणित से ओर सरकार की इच्छा के अनुसार
आंकड़ों में हेरा फेरी करके रातों-रात पांच करोड़ लोग गरीबी रेखा से ऊपर
आ जाते हैं . इतने तीव्र विकास पर हैरान है आम आदमी .
आम आदमी की जुबान में एक रचना आप सब को समर्पित करता हूँ जी :-

संसद में आम आदमी के नुमाईंदे
बड़े गर्व से करते हैं ये घोषणा कि
भारत में अब विकास हो गया है
गरीब आदमी अब अमीर हो गया है
सरकारी नीति के कारण पाँच करोड़
लोग अब छाती फुलाकर कह सकेंगे
गर्व से कि वे अब गरीब नहीं हैं
एकाएक विकास सुनामी से देश में
उद्योग बढ़ गए हैं आम आदमी के लिए
लेकिन आंकड़े बता रहे हैं कि बे-कफ़न
लाशों को लोग छोड़कर जा रहे हैं
अंतिम रस्म का खर्च इतना है कि
परिवार के पाँच लोग एक दफ़न के लिए
सरकार महीने भर से घास खा रहे हैं


केदारनाथ "कादर"

Tuesday, 21 February 2012

खाई





कल मन से मुलाकात हुई
मैंने पूछा तुम कैसे हो ?
मन घबराया और बोला -
तुम्हें नहीं मालूम क्या ?
प्रश्न अपेक्षित नहीं था मुझे
क्या जवाब दूँ मैं मन को
ओह ! आज पता चला की
मेरे और मन के बीच भी
एक खाई है सवालों की
मन बार-बार धकेलता है
गहरा और गहरा इसमें
हर बार आता है हाथ मेरे
एक जख्म जो दबा था कहीं
गहरे इस खाई में गहरी
मुझे बेधते प्रश्न क्रूर हैं
किसी बधिक के तीरों से
मैं तैरता रहता हूँ अथक
भावनाओं की लहरों पर
मन भँवर उठाता रहता है
कोई अस्त्र काम नहीं करता
कोई तरकीब नहीं चलती






कल कुछ समय विलग था
मैं अपने बेकाबू मन से
तब सोचा मैंने , ये खाई
कहाँ से उपजी है मेरी ?
मुझे लगता था कि मैं
कुछ विशेष हूँ शायद
कल कईयों से बात हुई
बहुत निराशा हुई मुझे
ये जानकार कि सब-
मुझ जैसे ही हैं यहाँ
अपनी अपनी खाई सहेजे
सब तिरोहित हैं यहाँ
अपनी प्रश्न लहरों पर
इसीलिए हर एक मूक है
बस मुखरित प्रश्न हैं
और गूंजती खाई है
सबकी अपने मन की






केदार नाथ "कादर"










सपनों का भारत







कल सपनों का भारत ढूँढ रहा था
वह कितना सुंदर स्वप्न था उनका
भूख और बेकारी से पूर्णतया मुक्त
वह तो केवल स्वप्न ही रह गया
उन्होंने तो कोई कमी न रखी थी
अपना लहू तक बहाया था, परन्तु
वे सोच का बीज न डाल पाए सही
आज की नई पीढ़ी अक्सर उनपर
फव्तियाँ कसती है , हँसती है
क्या पाया उन्होंने-इस लड़ाई में
किनको सौंप दी अपनी विरासत ?
उफ़ ! सब मांसखोर भेड़िये, रक्षक
क्या हो गया है इस तंत्र को
क्या यही उगलता है ये जनतंत्र
अशिक्षा, गरीबी, भुखमरी, असमानता
आक्रोश, विद्रोह और पतन
ओह! नहीं, ऐसा तो नहीं होता



जनतंत्र की बाड़.जन ही बनें
तभी भेडियों से हक बचेगा
देखो भेडियों की टोलियाँ
घूमती है चुनाव के मौसम में
सावधान रहना इनकी लपलपाती
खून सनी जीभ से मतदाताओ
तुम्हारा मत ही तुम्हारा हथियार
अगर नहीं जागे तो याद रखो
झंडा लपेटकर भी तुम शहीद नहीं
वरन आतंकवादी ही कहाओगे
हाँ, युद्ध करो खुद से पहले, तब
इन्हें दोष देना, इस व्यवस्था का
छेद बंद कर दो, लहू बहना बंद
स्वयं हो जायेगा इनके कटोरों में


आओ अब चलें चुनाव का दिन है
तिरंगा सजाओ अपने दिल में
देश को पहले रखो, खुद से
और फिर दबाओ बटन तुम
अपने और जन के नए भविष्य का
ताकि फिर कोई देश का बच्चा
हाथ में झंडा लिए जय हिंद लिखा
जयघोष नंगा होकर न करे
भूखा रहकर वन्देमातरम न कहे



केदारनाथ"कादर"

Wednesday, 15 February 2012

दूर के सवाल नजदीक से




आजकल चुनाव का माहौल है चारों ही ओर एक दुसरे पर कीचड़ उछाला जा रहा है. अलग अलग नौटंकी देखने को मिल रही है. हर पार्टी ने अपने अपने खोमचे सजा रखे हैं और हर एक वादों का मिष्ठान परोस रहा है. वादे भी बहुत सुहाने हैं इनके कुछ वादों पर नज़र डालें :



आजकल जबसे कांग्रेस के कपिल सिब्बल साहब ने आकाश नाम के टेबलेट की बात कर एकाएक भारत को हाईटेक बना दिया है. अब हर विद्यार्थी बस हाथ में टेबलेट लिए घूमता हुआ नज़र आ रहा सपने में. कीमत बहुत कम है.. हर एक को मिलेगा बस एक बार हाथ के निशान पर बटन दबा दो . प्रेरणा बड़ी चीज़ है...सो समाजवादियों ने भी ले ली. पहले वह कंप्यूटर का विरोध कर रहे थे लेकिन अब बहती गंगा में उन्होंने भी हाथ धो लेना ही मुनासिब समझा है. वैसे भारत के हर प्रान्त में लोग आशावादी हैं और आश्वासन की खेती यहाँ बिना खाद डाले ही होती है..पनपती है और फलती भी है. इसमें कोई ख़ास निवेश नहीं होता..केवल कुछ मीठे शब्द ..दूसरों की कमियाँ गिनाओ...आम आदमी नामक पशु से थोड़ी हमदर्दी दिखाओ और सत्ता पक्ष की बुराई करो और कुछ लुभावने नारे ...किराये के आदमियों से लगवाओ ...फिर बटन आपका और बटन दबाने वाला आप का गुलाम...



कभी सवाल करो की नेता जी आप ये पैसा कहाँ से लोगे ?..भाई जो पैसा आपके विकास के लिए आएगा उसमें से ही आपको बाँटेंगे न. तब फिर विकास को भूल जाओ . आपके बच्चों को स्कूल नहीं हैं..घरों में बिजली नहीं है..इन्टरनेट का किराया भरने को पैसा नहीं है..क्या करोगे कम्प्यूटर और लैपटाप का . आकाश भी एक बड़ा घोटाला साबित होगा...भविष्य तो यही दिखा रहा है..लेकिन भगवान् से यही विनय है की ऐसा न हो...इस आम आदमी नामक जंतु का एक मुंगेरी सपना सच कर दे. ये तो भूखा रहने का आदी हो ही चूका है सो भूखे पेट ही लैपटाप चला लेगा ..चाहे काला अक्षर भैंस बराबर हो. कपिल सिब्बल साहब को इस देश के बच्चों की बहुत फिकर है इसलिए शिक्षा पद्धति को बहुत बदल डाला गया है. अब आठवीं कक्षा तक कोई विद्यार्थी फेल नहीं होगा ..बोर्ड का एक्साम नहीं होगा..बच्चों की बल्ले बल्ले ...कोई बच्चा अब आत्म हत्या नहीं करेगा..कोई टेंसन नहीं होगी...सब गरीबों का एक ही बार में खत्म हो गया . न वह काबिल होगा न कभी नौकरी मांगेगा..बस बनकर रहेगा गुलाम इनकी औलादों का ....क्यूंकि इनके बच्चे तो बड़े स्कूलों में पढ़ते हैं न...वहां तो अधिकारियों की जमात होती है..नेताओं की फसल उगती है ....क्या कहें..मलाई होती है..आजकल उसे क्रीम कहते हैं. सो ये खिलौने तुम्हारे विकास के बीच बाँध ही बनेंगे . वैसे हर पार्टी को एक नयी परियोजना का सुझाव है..पूरे देश को शिक्षित करने का..सबको फ्री में डिग्रियां बाँट दो ग्रेजुएसन की.......एक ही झटके में देश साक्षर . जी हाँ मुझे मेरे बेटे ने बताया की 73 देशों की पुस्तक पढने और गणित प्रतियोगिता हुई थी और भारत के बच्चे पुस्तक पढने और गणित प्रतियोगिता में अंतिम स्थान पर थे..जय हो कपिल सिब्बल साहब.



विकास का लोलीपोप सब पार्टियाँ लाइन लगाकर दे रहीं है. सब कहते हैं विकास होगा ..अगर उनकी पार्टी को जीत हासिल हुई. लेकिन होगा क्या? अगर वे सत्ता में आये हैं और जिस क्षेत्र से उनका उम्मीदवार जीतकर नहीं आएगा ...वहाँ का विकास बंद ..बिजली बंद ..सडकें बदहाल..कोई सुविधा नहीं मिलेगी...हर फ़ाइल को लटका दिया जायेगा मंत्रालय में..यानी यातना आम आदमी को ही मिलेगी . कुछ तो दबंगई का शिकार भी होंगे ...भाई ये नेता भी कोई राजा से कम नहीं हैं...बस फर्क यही है की ये पांच साल के हैं..और तुम्हें राहत ये की ...नए नेता का सपना देखने का तुम्हारा अधिकार सुरक्षित है आखिर लोकतंत्र है भाई.....विश्व का सबसे बड़ा .....जन तंत्र ...जहाँ जन को तंत्र में उलझा कर ..घुटघुटकर मरने के लिए लिए शातिर नेता बाध्य करते हैं.....ईश्वर इनको प्लास्टिक के कीड़े पड़ें...हर आदमी यही दुआ मांगता है..चुनाव के कुछ समाय बाद .



वैसे सरकार बहुत जागरूक है ...अच्छे खासे मुनाफा देने वाले अनेक उद्योगों और कारखानों को विनिवेश के नाम पर...बड़े बड़े घरानों को बेच चुकी है..और बाकी बचे भी जल्द ही इनकी झोलियों में पहुँचने की तैयारी कर रहे हैं. सेज के नाम पर कितने ही आम आदमियों की जमीन कौड़ियों के भाव बेच दी और दलाली का पैसा भी विदेशों के बैंकों की शोभा बढ़ा रहा है. सरकार को विकास नाम का भूत..चिराग में रखने का मंतर आता है भाई.

हो सके तो किसी नेता से ये पूछ लेना ...लेकिन याद रखना पैर में जूते न हों तुम्हारे ...जेब में कोई स्याही की बोतल न हो...हाथ में काला रूमाल भी नहीं होना चाहिए....वर्ना नेताजी के समर्थक तुम्हारा कल्याण कर देंगे......और हो सकता है तुम्हारे सूखे गाल ...लाल हो जायें ..या तुम्हें पता चले की तुम्हारे शारीर का विकास हो गया..एक हड्डी की दो बन गयीं ....haan जाने से पहले उनके नाम का जैजैकार जरुर करना..यही तो सीधी है मंच तक पहुँचने की .......



आज इतना ही ...आम आदमी के लिए कहूँगा..बाकी मरहम फिर लगाऊँगा ...तुम्हारे नए घावों पर

Friday, 10 February 2012

सूरज



बहुत दिनों बाद -

आज सूरज देख रहा हूँ
ये बात न समझना
घर से निकला न था
निकला था अक्सर बाहर
अंजान पगडंडियों पर
लेकिन उधर नहीं चला था
जहाँ केवल तुम थे-अकेले

बहुत गहरी थी मेरी
यादों की काली रात
बड़ी बड़ी खाईयां थीं
कुछ कठोर चट्टानें भी
जो उगी थी मौन से


कल मेरे मौन ने मुझसे
कहा था अकेले में ही -
मैं उसकी हत्या कर दूँ
संवाद का सेतु तान दूँ
प्रीत के आँगन तक
मन ने निर्णय कर लिया
देखो आज सवेरा हो गया
बहुत दिनों के बाद मैं
आज सूरज देख रहा हूँ






केदार नाथ "कादर"






पुनरावृत्ति नहीं समय की



पुनरावृत्ति नहीं समय की

मन बैल सम मत घूम
आजा भर ले आज तू
अपने मिलन की माँग
उठ जाग, ले गागर चल
छाए आँगन प्रीत घन
गाए पवन, महके सुमन
कहता है मन, अभी चल
हर ले अपनी हर दहन
              पुनरावृत्ति नहीं समय की
              मन बैल सम मत घूम

प्रिय खड़े मन द्वार पर
लेकर सुगढ़ कर माल
शीश क़दमों में झुकाकर
जीत ले मन प्राण
हो जा मूर्ख मन सरल
बह संग प्रिय अविरल
भर माँग माथे की
धर ध्यान की ज्योति
कर ले जीवन सफल


                पुनरावृत्ति नहीं समय की
                मन बैल सम मत घूम

केदार नाथ "कादर"


Tuesday, 7 February 2012



आदमी हूँ मैं


कभी लगता है खुद से अजनबी हूँ मैं
भीड़ में कोई बिछड़ा सा आदमी हूँ मैं

बहुत लोग दिखते हैं फरिश्तों की तरह
अजीब रोग है मुझको आदमी हूँ मैं

उम्मीद से रिश्ता है हारे हुओं का एक
है हाथ में तलवार वो आदमी हूँ मैं

लिखते और भी हैं धुंआ-धुंआ सा लोग
दिल में चिराग रौशन वो आदमी हूँ मैं

बम्ब हूँ जिसे जला सकते नहीं "कादर"
सोतों को जगाये जो वो आदमी हूँ मैं

केदारनाथ "कादर"







NETA






हमें नाराज़ भी होने का अब हक नहीं यारो

बेचा है जैसे खुद को इन्हें वोट देकर यारो
बिकती है प्याज, पेट्रोल, बियर एक दाम पर
पानी भी बिक रहा है दूध के दाम पर यारो

झंडा जलाना मंजूर है मगर उसे फहराना नहीं
कैसे अज़ब हालात से देश गुजर रहा मेरा यारो

खून अब खून कहाँ है जो गर है गैरों का
आज इंसान जानवर सा मर रहा है यारो

बस मुफलिसी ही हमारी किस्मत में क्यों है
"कादर" ये सवाल ओहदों पे बैठों पूछ लो यारो



केदारनाथ "कादर"

Thursday, 19 January 2012

हम भटके हैं आस लिए, जाने किस मंजिल की,



कितने हैं बेखबर हम सारे, खबर नहीं है पल की



सब आयोजन ये अपने, हैं भटकन केवल मन की


बाज़ समय का कब चुग जाये सांसें इस जीवन की



भूख जानते हैं तन की , बिसराई बातें मन की


द्रोह किया खुद से पग-पग, राह चुनी बीहड़ की



जो बोया सो हम काट ही लेंगे, ये खेती कर्मों की


दीपमाथ जगाओ, बुझने से पहले ज्योति जीवन की



मंगल वचन स्मरण कर, करो बातें चिर जीवन की


पल केवल अभी बचा "कादर" त्यागो बातें कल की



केदारनाथ "कादर" ( १९.०१.२०१२)