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Sunday, 22 April 2012

बहुत सी रचनायें  हमने मंच पर साँझा की, जो हमारे समाज पर आधारित थी . हमने जयादातर रचनाओं में महिला की दशा का वर्णन किया  ...उस पर होते अत्याचार पर चर्चा की. वे हमारे समाज का अभिन्न हिस्सा हैं..ठीक वैसे ही जैसे की पुरुष है . आज उसी पुरुष के नजरिये  एक  रचना आप सभी सुधि जनों को समर्पित करता हूँ...आप का समर्थन चाहूँगा  :-




किसी ने नहीं देखा है कभी
मर्द का चिल्लाता हुआ दर्द
वह  सहमा सा ही रहता है
एक पूँछ लगे हुए कुत्ते सा
अपनी ही  टाँगों के बीच में
हर एक उसका रिश्ता यहाँ
करता है उसपे तीखा वार
बनकर जैसे तेज़ धार तलवार 


वह अक्सर बहुत सहता है
और सहमता है वह खुद ही
होने पे अपने मर्द का दर्जा
बनता है  रोज़ ही शिकार
वह कभी बहन के हक से
वह कभी माँ के प्यार से
कोरे अधिकार से पत्नी के 
कभी बच्चों के ख्वाव से


रहता है  निरीह जानवर सा
वह सदा स्नेह का भिक्षुक 
जीता एक अनचाही जिंदगी
अकेला वह होते हुए शिकार
अक्सर ही तन और मन पे
वह झेलता है रोज़ कितने बाण
फिर भी कहते हैं लोग यही
मर्द को दर्द होता  ही नहीं

अक्सर मंचों से मैं सुनता हूँ
महिला होने के अभिशाप का प्रलाप  
जो मारता दबाता है पुरुष को
जो ठहराता है दबंग और दानव
जबकि सच तो ये भी है कि
परुष पग पग छला जाता है
पुरुष ही नहीं बनाता शिकार
उसका भी शिकार किया जाता है


केदारनाथ "कादर"

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