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Monday, 23 April 2012



क्या मन नहीं होता औरत का
केवल जिश्म ही भाता है तुम्हें
अनेक बार कहा है मैंने तुमसे
मुझे सोते से मत जगाया करो
लेकिन तुम आते हो रात गए
पीकर   गन्दी बदबू भरी शराब
तब तुम्हारा प्यार जाग पड़ता है
अचानक या ये तुम्हारी हवस  है 
जो ले आती है मेरे जिश्म तक
तुम्हारे शरीर के, प्यासे पुरुष को
तब तुम्हें मैं अचानक ही क्यों -
लगने लगती हूँ प्यारी और सुंदर
परन्तु, प्यार का ज्वर भी कितना
स्खलन तक तुम्हारे. और फिर-
पीठ फेरकर सो जाते हो तुम
मारते हुए खर्राटे बे-सुध होकर
मुझे नहीं भाता व्यवहार तुम्हारा
लेकिन अब करूँ भी तो क्या?  
मैं  कोई ख़रीदा गया पुतला हूँ ?
या तुम्हारे समाज की मुहर लगी 
वासना की प्रतिपूर्ति की मूरत
ये तुम्हारा घर है ,मानती हूँ
मैं क्या चौकीदार हूँ , बच्चों की
जो तुम छोड़ जाते हो कोख में
और पालती हूँ मैं न चाहकर भी
बड़े मजबूत हो तुम , कहते हो
आओ पालकर देखो  और जियो
चार दिन ये जिंदगी औरत की


केदारनाथ"कादर"
 

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