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Tuesday, 21 February 2012

सपनों का भारत







कल सपनों का भारत ढूँढ रहा था
वह कितना सुंदर स्वप्न था उनका
भूख और बेकारी से पूर्णतया मुक्त
वह तो केवल स्वप्न ही रह गया
उन्होंने तो कोई कमी न रखी थी
अपना लहू तक बहाया था, परन्तु
वे सोच का बीज न डाल पाए सही
आज की नई पीढ़ी अक्सर उनपर
फव्तियाँ कसती है , हँसती है
क्या पाया उन्होंने-इस लड़ाई में
किनको सौंप दी अपनी विरासत ?
उफ़ ! सब मांसखोर भेड़िये, रक्षक
क्या हो गया है इस तंत्र को
क्या यही उगलता है ये जनतंत्र
अशिक्षा, गरीबी, भुखमरी, असमानता
आक्रोश, विद्रोह और पतन
ओह! नहीं, ऐसा तो नहीं होता



जनतंत्र की बाड़.जन ही बनें
तभी भेडियों से हक बचेगा
देखो भेडियों की टोलियाँ
घूमती है चुनाव के मौसम में
सावधान रहना इनकी लपलपाती
खून सनी जीभ से मतदाताओ
तुम्हारा मत ही तुम्हारा हथियार
अगर नहीं जागे तो याद रखो
झंडा लपेटकर भी तुम शहीद नहीं
वरन आतंकवादी ही कहाओगे
हाँ, युद्ध करो खुद से पहले, तब
इन्हें दोष देना, इस व्यवस्था का
छेद बंद कर दो, लहू बहना बंद
स्वयं हो जायेगा इनके कटोरों में


आओ अब चलें चुनाव का दिन है
तिरंगा सजाओ अपने दिल में
देश को पहले रखो, खुद से
और फिर दबाओ बटन तुम
अपने और जन के नए भविष्य का
ताकि फिर कोई देश का बच्चा
हाथ में झंडा लिए जय हिंद लिखा
जयघोष नंगा होकर न करे
भूखा रहकर वन्देमातरम न कहे



केदारनाथ"कादर"

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