जीवन की सुबह बीत गयी
मेरी खेल अंगूठा चूस
दुःख के आँगन दोपहरी बीती
अब भी संघर्ष ये जारी है
अब जाने आगे क्या हो ?
एक श्वेत लिबास मिला मुझको
इस काले कालख खाने में
कुछ काला हुआ करतूतों से
कुछ काला दाग छुड़ाने में
न जान सका मैं खुद को
न ही उस से परिचय मेरा
इतने कोलाहल में भी रहा
मेरा अंतर्मन सूना -सूना
बस ही पकडे रहे देह को
और देह ही बाकी रही मेरी
मन वातायन सब सूने-सूने
जाने कब रश्मि का फेरा हो ?
ये आयु कोष भी रीत चला
पलपल लुटता ये व्यापारी
मन बांध सका न मैं निर्बल
है दिशाहीन जीवन गाड़ी
तू कहता इसको रंग लाना
तेरे ही नाम के रंग में
पर तू है कहाँ नहीं जानू मैं
तेरी गली नहीं मैंने जानी
बचपन में गीली की चादर
यौवन में मैली की चादर
अब जाने कहाँ रंगरेज मिले ?
अब कैसे जीवन काज सजे ?
अब यही प्रश्न चहुँ ओर उगे
ओ मेरे कृष्ण कहाँ पर हो ?
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