हरिद्वार गंगा में खनन रोकने के लिए कई बार के लंबे अनशनों और जहर दिए जाने की वजह से मातृसदन के संत निगमानंद अब इस संसार में नहीं रहे. हरिद्वार की पवित्र धरती का गंगापुत्र अनंत यात्रा पर निकल चुका है। भारतीय अध्यात्म परंपरा में संत और अनंत को एक समान ही माना जाता है, वे सच्चे अर्थों में गंगापुत्र थे. गंगा रक्षा मंच, गंगा सेवा मिशन, गंगा बचाओ आंदोलन आदि-आदि नामों से आए दिन अपने वैभव का प्रदर्शन करने वाले मठों-महंतों को देखते रहे हैं पर गंगा के लिए निगमानंद का बलिदान इतिहास में एक अलग अध्याय लिख चुका है। गंगा के लिए संत निगमानंद ने 2008 में 73 दिन का आमरण अनशन किया था जिस से उनके शरीर के कई अंग कमजोर हो गए थे और न्यूरोलॉजिकल डिसऑर्डर के भी लक्षण देखे गए थे. और अब 19 फरवरी 2011 से शुरू संत निगमानंद का आमरण अनशन 68वें दिन (27 अप्रैल 2011) को पुलिस गिरफ्तारी के साथ खत्म हुआ था, उत्तराखंड प्रशासन ने उनके जान-माल की रक्षा के लिए गिरफ्तारी की थी. संत निगमानंद को गिरफ्तार करके जिला चिकित्सालय हरिद्वार में भर्ती किया गया। हालांकि 68 दिन के लंबे अनशन की वजह से उन्हें आंखों से दिखाई और सुनाई पड़ना कम हो गया फिर भी वे जागृत और सचेत थे और चिकित्सा सुविधाओं की वजह से स्वास्थ्य धीरे-धीरे ठीक हो रहा था. लेकिन 2 मई 2011 को उनकी चेतना पूरी तरह से जाती रही और वे कोमा की स्थिति में चले गए. जिला चिकित्सालय के मुख्य चिकित्सा अधीक्षक पी.के. भटनागर संत निगमानंद के कोमा अवस्था को गहरी नींद बताते रहे। बहुत जद्दोजहद और वरिष्ठ चिकित्सकों के कहने पर देहरादून स्थित दून अस्पताल में उन्हें भेजा गया फिर उनका इलाज जौली ग्रांट स्थित हिमालयन इंस्टिट्यूट हॉस्पिटल में चला .
हिमालयन इंस्टिट्यूट हॉस्पिटल के चिकित्सकों को संत निगमानंद के बीमारी में कई असामान्य लक्षण नजर आए और उन्होंने नई दिल्ली स्थित ‘डॉ लाल पैथलैब’ से जांच कराई और चार मई 2011 को जारी रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि ऑर्गोनोफास्फेट कीटनाशक उनके शरीर में उपस्थित है जो दर्शाता है कि संत निगमानंद को चिकित्सा के दौरान जहर देकर मारने की घिनौनी कोशिश की गई . जहर देकर मारने की इस घिनौनी कोशिश के बाद उनका कोमा टूटा ही नहीं और 42 दिनों की लम्बी जद्दोजहद के बाद वे अनंत यात्रा पर प्रस्थान कर गए. पर संत निगमानंद का बलिदान बेकार नहीं जायेगा. मातृसदन ने अंततः लड़ाई जीती और हरिद्वार की गंगा में अवैध खनन के खिलाफ पिछले 12 सालों से चल रहा संघर्ष अपने मुकाम पर पहुँचा है. 26 मई को नैनीताल उच्च न्यायालय के फैसले में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि क्रशर को वर्तमान स्थान पर बंद कर देने के सरकारी आदेश को बहाल किया जाता है.
मातृसदन के संतों ने पिछले 12 सालों में 11 बार हरिद्वार में खनन की प्रक्रिया बंद करने के लिए आमरण अनशन किए. अलग-अलग समय पर अलग-अलग संतों ने आमरण अनशन में भागीदारी की। यह अनशन कई बार तो 70 से भी ज्यादा दिन तक चला . इन लंबे अनशनों की वजह से कई संतों के स्वास्थ्य पर स्थाई प्रभाव पड़ा. मातृसदन ने जब 1997 में स्टोन क्रेशरों के खिलाफ लड़ाई का बिगुल फूंका , तब हरिद्वार के चारों तरफ स्टोन क्रेशरों की भरमार थी जो दिन रात गंगा की छाती को खोदकर निकाले गए पत्थरों को चूरा बनाने का व्यापार करते थे. स्टोन क्रेशर के मालिकों के कमरे नोटों की गडिडयों से भरे हुए थे और सारा आकाश पत्थरों की धूल (सिलिका) से. लालच के साथ स्टोन क्रेशरों की भूख भी बढ़ने लगी तो गंगा में जेसीबी मशीन भी उतर गयीं। बीस-बीस फुट गहरे गड्ढे खोद दिए। जब आश्रम को संतों ने स्टोन क्रेशर मालिकों से बात करने की कोशिश की तो वे संतों को डराने और आतंकित करने पर ऊतारू हो गये तभी संतों ने तय किया कि गंगा के लिए कुछ करना है और तब से उनकी लड़ाई खनन माफियाओं के खिलाफ चल रही थी.
देखिये आजकल कैसी विचित्र हवा बह रही है . भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलनों की बयार में मीडिया अपने आप को आन्दोलनों व् अभियानों के सूत्रधार के रूप में पेश करने की बेशर्मी कर रही है. मीडिया की संवेदनहीनता अपने चरम पर है. क्या जनहित में है और क्या नहीं , इन बातों से मीडिया को कोई सरोकार नहीं है , उसे बस चिंता है तो अपनी TRP की.
संत निगमानंद ढाई महीने से लगातार गंगा में अवैध खनन के विरोध में अनशन कर रहे थे उनकी हिमालयन अस्पताल में हुई मृत्यु से सबसे बड़ा सवाल मीडिया के चरित्र पर फ़िर से उठ खड़ा हुआ है राडिया टेप्स में नामचीन मीडियाकर्मियों की संलिप्तता जनता के सामने आने के बाद से मीडिया खासकर खबरिया चैनलों ने अन्ना हजारे की मुहिम और बाबा राम देव के अनशन को 24घंटे कवरेज देकर समाज में खोई विश्वसनीयता पाने की भरसक कामयाब कोशिश की थी लेकिन संत निगमानंद के संदेहास्पद मौत ने मीडिया की पोल खोल दी है और उसके चरित्र को फिर से उजागर किया है.
संत निगमानंद की संभावित हत्या की खवर पिछले महीने 11 may को इंडिया वाटर पोर्टल के हवाले से आई थी लेकिन तब से लेकर संत निगमानंद की मौत हो जाने तक किसी भी राष्ट्रीय मीडिया ने इसे खबर नहीं बनाया. हालाँकि मौत के बाद आज तक और जागरण ने इसकी खबर जरुर दी. लेकिन संत निगमानंद के मामले से यह स्पष्ट हो गया कि भारतीय मीडिया ब्रांड बनाने और स्थापित ब्रांड के पीछे भागने के अलावा कोई और काम नहीं करती है. हाँ इनका सरकारी विज्ञापनों के लिए राज्य या केंद्र सरकार के अनुसार ख़बरों को तोड़ -मरोड़ कर दिखाने में कोई सानी नहीं है. वैसे भी पत्रकारिता एक पेशा बनकर रह गया है जो ऐसी घटनाओं से दूषित होता जा रहा है.
यदि पिछले तीन महीनों का मीडिया अध्ययन करे तो स्पष्ट होता है कि किस तरह से मीडिया ने अन्ना हजारे को पूरे देश का हीरो बनाया और
बाबा रामदेव अचानक नेपथ्य में गायब हो गये. लेकिन अचानक फ़िर से रामलीला मैदान में अपने अनशन से स्टेज पर उभरे बाबा को मीडिया ने एकजुटता से सपोर्ट नहीं किया. रामलीला मैदान में पुलिसिया कार्यवाई ने मीडिया के रुख में थोड़ी सहानुभूति जरुर पैदा की लेकिन केंद्र सरकार से ” भारत निर्माण ” के विज्ञापन थोक भाव में मिलने से इंडिया टीवी और जी न्यूज को छोड़कर सभी चैनलों ने बाबा की छवि ख़राब करने का अभियान शुरू कर दिया है. सारा मिडिया मानों सत्ता की तूती हो, वैसे भी झूठन पे पलने वालों का जमीर कहाँ होता है ?
कभी रामकिशन यादव को योगगुरु का ब्रांड बनाने वाली मीडिया सरकार के इशारे पर रामदेव की ब्रांड बिगड़ने में इतनी मशगुल रही कि बिना ब्रांड वाले बलिदानी संत निगमानंद के अनशन और उसकी महत्ता को कोई खबर ही नहीं समझा. ये आचरण स्पष्ट करता है की मीडिया कितना जनप्रतिनिधि है.
ये घटनाये स्वस्थ समाज के निर्माण में बाधक हैं और प्रत्येक स्तर पर इसका विरोध होना चाहिए .
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