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Wednesday, 15 September 2010

एक पाति शब्दों की


आ बैठा हूँ तेरे तट पर
ओ मेरी मन बसनी रजनी
देख रही हो मेरे हृदय में
कलकल करती प्रेम नदी
शब्द पुष्प कुछ चुने हैं मैंने
सब तुमको करता अर्पण
मेरे मुख पर हंसी है तेरी
बिम्ब तेरा मन के दर्पण
लेकिन मन मरू मेरा विकट
जिसमे सिर्फ भटकना मुझको
आज भरे गले से तुमको
सत्य यही करता अर्पण

केदार नाथ "कादर"

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मूक पुजारी

वातायन खोलूं कैसे
प्रेम रश्मियों
तुम्हारे लिए
जबकि गठबंधन
विरह से हो चुका है
मेरे भाग्य की लिपि में
प्रेमांकुर का
प्रस्फुटन नहीं है
गल चुके हैं बीज
मेरे खारी नीर नयन से
मन के वातायन मेरे
अंधकारमय सारे
द्वार खड़े तम प्रहरी
तुम प्रतिवेदन न दो, प्रिये
हार चुका हूँ मैं बाज़ी
प्रेम मिलन ही नहीं है
प्रेम प्रतीक्षा भी है, प्यारी
निश्चय ही तुम देवी रहोगी
मेरे इस मन मंदिर की
और रहूँगा जीवन पर्यंत
"कादर" मैं मूक पुजारी

केदार नाथ "कादर"
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परछाई

यकीन मानो
इस आदमखोर मन में
मुझे डर लगता है
बहुत डर लगता है
मुझे लगता है की बस अभी
ये मन सांड सा उकसाएगा
देख कर धमनियों के खून को
जो खौल उठा है तुम्हारे रूप से
चकाचौंध से दंतपंक्तियों की
ज्ञान की आँखें चौंधा गयी हैं
उम्र का बंधन नहीं दीखता
जाने क्यूँ बेड़ियाँ चटक रही हैं
स्वप्न ही तो है ये मगर फिर भी
डर रहा हूँ अन्तः तिमिर से
इस में ही महसूस करता हूँ तुम्हें
आने पर दीपक जीवन में
तुम बन जाओगी परछाई
और मैं जानता हूँ -
तुम वहीँ होंगी -उसके साथ
पर दीपक की उपस्थिति में ही
उसी ने तो हरा है इस सुख को
क्या तुम जानती हो परछाई.

केदार नाथ "कादर"
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लेम्प पोस्ट

इस शहर के नंगेपन पर
तुम चाहो तो आंसू बहा लो
चाहो तो काली कमाई से
एक रात को एक देह पा लो

क्या तुम नहीं जानते,
घर में सोते हुए भी,
तुम हो बलात्कारी
बेचकर शर्म जब हुंकारते हो
तुम सांड की तरह, पूछ लो

तुम्हारे दुष्कर्म से ही तो
औरत पहुंचती है अस्पताल
गर्भपात के लिए -
तुम्हारी ही न्योछावर कमाई ले

तुम डूबते रहते हो
रिश्तों की नदी में वैधता खोजते
तुम भूल जाते हो अक्सर
तुम्हारे अपने ही किनारे

मैं सोच का लेम्प पोस्ट -
इसीलिए रख आया हूँ
तुम्हारे मनांगन में
ताकि फिर न लिखूं ऐसी कविता

केदार नाथ "कादर"
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चिड़िया


वह चिड़ियों को दाना डालकर पालती थी
खुश रहती थी फुदकती चिड़ियों की तरह
उसे मालूम न था, क्या है चिड़िया होना?
बहुत बड़ा गुनाह, जीवन में चिड़िया होना
इसलिए वह पीड़ित थी, चिड़िया होने से
कौन समझ सकता है, उसकी अपनी पीड़ा
क्या कवि? जो कभी चिड़िया नहीं बना
वह तो रटता रहा है , चिड़िया पूज्य है
चिड़िया फडफड़ाती है कटे हुए पंखों से
जो बंधे हैं रिश्तों से और अधिकारों से
कोई नहीं समझता चिड़िया की तड़पन
चिड़िया भूख से पिंजड़ा नहीं बदलती
उसे अखरती है, सामाजिक बेरुखी
इसलिए चिड़िया चीखती है अब जोर से
यही गुनाह काफी है उसे मारने के लिए

केदार नाथ "कादर"

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मृतात्मा

मेरा ये देश गुलामी में भी न मरा
मेरा देश कालजयी बना रहा अबतक
लेकिन अब मुझे लगने लगा है डर
अनेक प्रकार के अस्त्र बनाये जा रहे हैं
अनेक प्रकार के बम्ब बनाये गए हैं
हाँ, महाभारतकाल से भी भयानक
क्योंकि तब सिर्फ शरीर मारे जाते थे
लेकिन अब आधुनिकता के नियम
अठारह दिन की महाभारत से बचे
इन्सान की आत्मा को, मारने के अस्त्र
साबित हो रहे हैं आज के युग में
इसलिए कृष्ण भी नहीं आ पाए, बचाने
आज के आधुनिक मानव को
जो जिए जा रहा है मृतात्मा बनकर

केदार नाथ "कादर"
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चित्र

तुमने ही तो कहा था एक दिन-
तुमने देखी हैं अजंता एलोरा गुफाएं
अपने यौवन काल की शुरुआत में
तुम्हारा आत्मिक सम्बन्ध है उनसे
तुम ने ही तो कहा था, तुम चित्र हो
उन्हीं दीवारों से उठाया और जीवंत
मेरी पारखी आँखों ने मान लिया था
किन्तु -
इस पूर्ण यौवन में विरह ने
कर दिया है तुम्हे विरूपित
तुम अपनी ओर से करो
अथक प्रयत्न देह सुन्दर दरसाने के
लेकिन मैं जानता हूँ, चित्रे
तुम्हें , तुम्हारी देहयष्टि से नहीं
वरन, तुम्हारे आत्मिक शृंगार से
अँधेरे के शस्त्र, कर रहे हैं घायल
लहूलुहान है ये तुम्हारा मन
आश्रयदाता द्वारा तुम उपेक्षित
गुंजायमान तुम्हारी मौन चीखें
मैं कवि हूँ , मैं ही महसूसता हूँ ये
तुम कहो तो ये पीड़ा पी सकता हूँ
मैं ही हूँ जो चिरंतन प्रेम पूरित
तुम्हे हृदय में धर सकता हूँ

केदार नाथ "कादर"
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देह का महाभारत

आदर्श, मानवता, प्रेम
केवल हैं मरे हुए शब्द
जो कुचले जा रहे दिन रात
धर्म के भारी ट्रक के नीचे
धर्म मानो देह कोई रूपसी की
दिन रात खोदी जाती, शिशनों से
योनि के ताज़े रक्त से रंगे वस्त्र
इस कलयुग के महापुरुषों के
वेश्या के कोठों से कालेज
नपुंसक शिशनधारियों की भीड़
आते जाते ताकती रहती है
चिकनी खंबे सी गोरी जांघें
आँखों में अनेक ख्वाव पाले
उलटी सीधे घिसने के
चिपक कर रौंदने के लिए
अब धर्म शास्त्र जला दो
पढने दो इन्हें कोकशास्त्र
ताकि ख़तम हो सके इनकी
देह का ये भीषण महाभारत

केदार नाथ "कादर"
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अंगूठा

तुम मुझे वोटर कहकर
गाली न दो मतदाता को
मैं तुम पर गुस्सा नहीं करूँगा
मुझे तुम पर दया आती है
तुम निर्वसन हो चुके हो
तुम्हारी उगाई घृणा घास पर
जल्द ही तेजाब बरसने वाला है
इसलिए-
मैं तुम्हारे अन्याय और दमन को
इस जगह से मिटाने के लिए
सोच रहा हूँ बनूँ फिर गोडसे
लेकिन तुम महात्मा नहीं हो
इसलिए मैं मारूँगा तुम्हें
डुबोकर, भरे हुए मूत्रताल में
उसी वोटर के जिसे तुम
समझते हो शोभा पलंग की
बस अंगूठा लगाने के बाद


केदार नाथ "कादर"
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मिठाई

तुम क्या सुनोगे मेरी कथा
मैं औरत, मेरे औरतपन की कथा
आँखें खोली, बड़े से महल की
छोटी सी कोठरी में, नौकर की
मैं माँ माँ कहकर नहीं रोई थी
रोई थी मालिक मालिक कहकर
मैं उग आई थी जंगली घास सी
नोकीले सिरे लिए, अपनी गरीबी के
बर्तन धोते, कपडे धोते , धीरे धीरे
बन रही थी दूध वाली गैय्या
"पलंग पर आओ" से जाना मैंने
मेरी उम्र बढ़ जाने का राज
मैं तो तितलियाँ ही पकड़ती थी
पर आज मालिक ने तितली कहा
मसल कर नन्हे उरोज मेरे -
जगाई मेरी प्यास और बुझाई अपनी
ख़राब भी मैं ही हुई और
जुल्म भी मुझ पर ही हुआ
अब मैं महल के हरम में हूँ
परोसी जाती हूँ मिठाई जैसे
राजनीतिज्ञ मेहमानों के सामने
बदले में मिलते हैं हरे हरे नोट
साहब के पास बहुत नोट हैं
मेम साहब के पास भी हैं
सोचती हूँ क्या ये भी मिठाई हैं ?

केदार नाथ "कादर"
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मछलीमार

जब जगना के साथ रमिया

अफसर बाबू के दफ्तर गयी थी

तब रमिया का चेरा ढँका हुआ था

जगना को बाबू ने "हाँ" कह दिया था

जगना को मछली पालन के लिए

सरकारी अनुदान की दरकार थी

बाबू ने रमिया को घूरते हुए कहा था

मछलियों की बदबू आती है तुमसे

कई चक्कर लगाने के बाद ही

उन्नत मछली बीज मिलना तय हुआ

रामियाँ के बार बार बाबू से मिलने पर

अफसर बाबू को मछली बास भा गयी

गरीब रमिया बाबू के बिसतर पे

और तालाब में मछलियाँ आ गयीं

अब अफसर बाबू मछलीमार हैं

मछलियाँ शासन की शिकार हैं

केदार नाथ "कादर"

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खद्दर

बच्चों को अध्यापक विद्यालय में

एक नया इतिहास शीघ्र ही पढ़ाएंगे-

माननीय नेता जी पर, विपक्ष द्वारा

१०० से अधिक जूठे केस गढ़े गए-

उनके जीवन काल में,

नेताजी बड़े ही संघर्षशील थे

पहले उन्होंने दरवाजे पर

अपनी माँ का गला रेता

फिर जायदाद के लिए

सगे भाई का खून किया

मौका पाते ही, कमरे में

सगी बेटी से बलात्कार किया

इसके बाद भी थके नहीं ....

वे खद्दर पहन कर चल पड़े

देश की संसद की ओर

केदार नाथ "कादर"

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तेंतीस प्रतिशत

मेरा बेटा रिपोर्ट कार्ड दिखाने लाया

मैंने देखा उसके नंबर बहुत कम हैं

मैंने पूछा- क्या कारण है इसका ?

बेटा मुस्कुराकर घूरते हुए बोला -

कम कहाँ हैं? तेंतीस प्रतिशत से ज्यादा हैं

वही तो चाहिए पास होने के लिए

यही तो निर्धारित है नियम द्वारा

मुझे लगा प्रश्न मुहँ चिढ़ा गया

अवलोकन किया मैंने चहुँ ओर

ओह , ये अव्यवस्था क्यूँ है ?

आज समझ में मेरी आया

तेंतीस प्रतिशत वाले ही लोग

आजकल सत्ता को चला रहे हैं

हर क्षेत्र में ही तेंतीस प्रतिशत

जैसे मानक , वैसे ही परिणाम

इस लिए देश में इन्सान और

प्रगति भी तेंतीस प्रतिशत ही है

बाकि हैं तो नेता और दलाल

दलित और शोषित शिकार

केदार नाथ "कादर"

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