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Sunday, 27 June 2010

नक्सली

मुझे तुझ से प्यार है मेरे बच्चे
तू बेबाक यूँ बोला न कर
गिद्धों के सामने अपने ये
नाजुक पंख खोला न कर

आज़ादी से लेकर आज तक
मांगते रहे-पर मालूम न था
बिना दिल्ली चढ़े हक हासिल नहीं
ये बात तू बोला न कर

न कहाकर झंडे समेटो
न कह की धरने पे बैठो
आग कर के इकठ्ठा तुम
ज्वालमुखी से संसद पे फूटो

अगर तुझमें नहीं दम मौन रह ले
ये सारे ही सितम चुप चाप सह ले
तू अपनी बातें दायरे में किया कर
तुझको मार सकते हैं नक्सली बताकर

न तोड़ो बेड़ियाँ तुम कानून की
गिद्धों की न छीनो बोटियाँ
गिद्धों पर बनकर बिजलियाँ टूटो
ये अपने बाप पर एहसान कर

केदारनाथ "कादर"
kedarrcftkj.blogspot.com

3 comments:

  1. क्रान्ति !!! , कब ????
    क्रान्ति के पूर्व
    होती है छटपटाहट
    भीतर
    कही कोने में
    नक्कारखाने में
    तूती की तरह
    जैसे
    रात के अँधेरे में
    करते हो शोर
    ढेर सारे झींगुर
    मगर ...
    क्रान्ति नहीं होती
    लोग जागते है
    या
    जब अलसभोर हो
    या
    जब सिंह दहाड़ते है
    निकट ,
    निपट,
    निर्भीक !

    (आदरणीय प्रिय श्री केदार नाथ "कादर" जी को समर्पित करता हु ये शब्द )

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  2. bahut khoob kedar ji!

    subhkamana sweekaar karien!

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