ख़्वाबों के परिंदों के
पर काट दिए लेकिन
अब खुद ही तरसते हैं
सन्देश नहीं मिलते ...
पर काट दिए लेकिन
अब खुद ही तरसते हैं
सन्देश नहीं मिलते ...
तितलियाँ पड़ी हैं पर
उन बेजान किताबों में
पहले की तरह लेकिन
अब चेहरे नहीं खिलते
रातों के ख्वाब अब तक
हैं अटके सूनी निगाहों में
जलते हैं दीये लेकिन
रौशन से नहीं लगते
हम कनक कटोरी ले
कितनें वन- वन घूमें
मन सुर अपने लेकिन
खुद से भी नहीं मिलते
आँखों से ओझल है
खुशियों के सब सपने
क़दमों के निशां गायब
खोजे से नहीं मिलते
शब्द मसीहा
उन बेजान किताबों में
पहले की तरह लेकिन
अब चेहरे नहीं खिलते
रातों के ख्वाब अब तक
हैं अटके सूनी निगाहों में
जलते हैं दीये लेकिन
रौशन से नहीं लगते
हम कनक कटोरी ले
कितनें वन- वन घूमें
मन सुर अपने लेकिन
खुद से भी नहीं मिलते
आँखों से ओझल है
खुशियों के सब सपने
क़दमों के निशां गायब
खोजे से नहीं मिलते
शब्द मसीहा
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