कल मन से मुलाकात हुई
मैंने पूछा तुम कैसे हो ?
मन घबराया और बोला -
तुम्हें नहीं मालूम क्या ?
प्रश्न अपेक्षित नहीं था मुझे
क्या जवाब दूँ मैं मन को
ओह ! आज पता चला की
मेरे और मन के बीच भी
एक खाई है सवालों की
मन बार-बार धकेलता है
गहरा और गहरा इसमें
हर बार आता है हाथ मेरे
एक जख्म जो दबा था कहीं
गहरे इस खाई में गहरी
मुझे बेधते प्रश्न क्रूर हैं
किसी बधिक के तीरों से
मैं तैरता रहता हूँ अथक
भावनाओं की लहरों पर
मन भँवर उठाता रहता है
कोई अस्त्र काम नहीं करता
कोई तरकीब नहीं चलती
कल कुछ समय विलग था
मैं अपने बेकाबू मन से
तब सोचा मैंने , ये खाई
कहाँ से उपजी है मेरी ?
मुझे लगता था कि मैं
कुछ विशेष हूँ शायद
कल कईयों से बात हुई
बहुत निराशा हुई मुझे
ये जानकार कि सब-
मुझ जैसे ही हैं यहाँ
अपनी अपनी खाई सहेजे
सब तिरोहित हैं यहाँ
अपनी प्रश्न लहरों पर
इसीलिए हर एक मूक है
बस मुखरित प्रश्न हैं
और गूंजती खाई है
सबकी अपने मन की
केदार नाथ "कादर"