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Monday, 23 April 2012






मेरा ही  राज़दार  मुझको आज छोड़ गया
आज मेरा भी भरोसा   कहूँ तो तोड़ गया   


ख्वाव मैंने तो सजाये थे उम्र भर के लिए 
दोस्त चलकर कदम चार मुझे छोड़ गया


बे-वजह हँसना मुनासिब नहीं होता हरदम
बात कहकर सिसकता मुझे वो छोड़ गया 


बात कोई जो कही होती मना ही लेता मैं
दिल का सरताज चुपचाप मुझे छोड़ गया


मेरे ख्वाबों में रहा कोई किराया न दिया
मैंने जिस घर में रखा वही घर तोड़ गया


मैं भटकता रहूँ लफ़्ज़ों के घने जंगल में
"कादर" ख्याल मुझको अकेला छोड़ गया


केदारनाथ "कादर"
 


क्या मन नहीं होता औरत का
केवल जिश्म ही भाता है तुम्हें
अनेक बार कहा है मैंने तुमसे
मुझे सोते से मत जगाया करो
लेकिन तुम आते हो रात गए
पीकर   गन्दी बदबू भरी शराब
तब तुम्हारा प्यार जाग पड़ता है
अचानक या ये तुम्हारी हवस  है 
जो ले आती है मेरे जिश्म तक
तुम्हारे शरीर के, प्यासे पुरुष को
तब तुम्हें मैं अचानक ही क्यों -
लगने लगती हूँ प्यारी और सुंदर
परन्तु, प्यार का ज्वर भी कितना
स्खलन तक तुम्हारे. और फिर-
पीठ फेरकर सो जाते हो तुम
मारते हुए खर्राटे बे-सुध होकर
मुझे नहीं भाता व्यवहार तुम्हारा
लेकिन अब करूँ भी तो क्या?  
मैं  कोई ख़रीदा गया पुतला हूँ ?
या तुम्हारे समाज की मुहर लगी 
वासना की प्रतिपूर्ति की मूरत
ये तुम्हारा घर है ,मानती हूँ
मैं क्या चौकीदार हूँ , बच्चों की
जो तुम छोड़ जाते हो कोख में
और पालती हूँ मैं न चाहकर भी
बड़े मजबूत हो तुम , कहते हो
आओ पालकर देखो  और जियो
चार दिन ये जिंदगी औरत की


केदारनाथ"कादर"
 



एक भूखे की ताड़ में
ताक लगाये बैठे हैं 
एक घर के सामने
सूखे पेड़ पर कई
तेज़ नज़र गिद्ध
पैनी चोंच कौआ
मटमैली सी चीलें
आँगन में कुत्ता


सब इंतज़ार में हैं
भूखे की मौत की
ताकि भूख मिटे
इनकी भी कुछ 
शांत हो तांडव
सिकुड़ी आंतड़ियों का


कुत्ते ने पानी फैलाया
गिद्ध ने गर्दन दबाई
कौए ने आँख फोड़ी
चींटियों ने सभा बुलाई
चील जोर से चिल्लाई
आज हम नहीं मरेंगे


चिपका मांस खाया
चील और गिद्ध ने
कुत्ते ने चाबी हड्डियाँ
संस्कार के नाम पर
सामाजिक कार्यकर्ता
शाम भर पेट खायेंगे


अगले चुनावों में
स्थानीय नेता हमारे
आम आदमी हेतु
अपने संकल्प दोहराएंगे
आदमी की दुनियाँ में 
जंगल राज चलाएंगे


केदारनाथ"कादर"   

Sunday, 22 April 2012



तुम अर्धांगिनी हो मेरी
मुझे गर्व है तुम पर
मैंने देखा है अक्सर तुम्हें
देर रात तक खटते हुए
सूरज से पहले उठते हुए
ताकि जा सकें हम भी
अपने दफ्तर ,बच्चे स्कूल
और तुम अपने काम पर


मुझे अक्सर लगता है
ये जैसे जिंदगी मशीन है
और तुम मेरी ऊर्जा हो
तुम बिन जीवन निरर्थक
लम्बी यात्रा भर होता मेरा
तुम न जाने क्या क्या हो
मित्र, माँ, पत्नी,सलाहकार
सच में जीवन हो साकार


मैंने देखा है तुम्हारा रोना
और चुप रह जाना अक्सर
मुझे भी दुःख होता है जब
पूरा नहीं कर पाता मैं कोई
तुमसे किया अपना वादा
और तुम बस मुस्कुराती हो
मेरे जीवन की कमियों पर
मैं पूर्ण हो जाता हूँ तब
जब कहती हो "जाने दो"
और जुट जाती हो फिर
दुगुने प्यार से परिवार में
सींचने नई ख़ुशी की खेती
अपने अथक परिश्रम से तुम


हाँ, मैं न्याय नहीं कर पाता हूँ
तुम्हारे इस सम्पूर्ण समर्पण से
तुम्हारे उड़ेले अतुलनीय प्रेम से
तुम्हारे ससक्त अथक परिश्रम से
ये भी तुम्हारा प्रेम ही है न
जो चुरा लिया है मैंने तुमसे
पर आज सच कहता हूँ, प्रिये !
धन्य हो गया है जीवन मेरा
पाकर तुम्हें अपना जीवन साथी


केदारनाथ "कादर



आदमी घर लौटने से डरता है
सारे सारे दिन खटने के बाद भी
घर में चूल्हा औंधा ही रहेगा
ये अमरीकी हमले से बड़ा डर है
घर के खाली लोटे और थाली
बगावत आज जरुर कर देंगे
आदमी का पेट तो सम्हाल ले
पर औलाद का पेट क्या करे
आज  ड्रोन के हमले होंगे ही
बासनों की अनुगूंज अभी से
आत्मा को बहरा कर रही है


केदार नाथ "कादर"
 



मेरे नन्हे मसीहा प्यारे
मैं तुझ पे वारी जाती हूँ
तेरा एहसान है मुझपर
तू बन के हाथ आया है


मेरा  जो फ़र्ज़ था माँ का
नन्हे वो तूने निभाया है 
निवाला मैं खिलाती तुझे
वो मुझे तूने खिलाया है


तेरा एहसान है माँ पर
ये तेरा रिश्ता निराला है
मेरे भी भाग्य अच्छे थे
फ़रिश्ता मैंने पाया है


केदारनाथ"कादर"
बहुत सी रचनायें  हमने मंच पर साँझा की, जो हमारे समाज पर आधारित थी . हमने जयादातर रचनाओं में महिला की दशा का वर्णन किया  ...उस पर होते अत्याचार पर चर्चा की. वे हमारे समाज का अभिन्न हिस्सा हैं..ठीक वैसे ही जैसे की पुरुष है . आज उसी पुरुष के नजरिये  एक  रचना आप सभी सुधि जनों को समर्पित करता हूँ...आप का समर्थन चाहूँगा  :-




किसी ने नहीं देखा है कभी
मर्द का चिल्लाता हुआ दर्द
वह  सहमा सा ही रहता है
एक पूँछ लगे हुए कुत्ते सा
अपनी ही  टाँगों के बीच में
हर एक उसका रिश्ता यहाँ
करता है उसपे तीखा वार
बनकर जैसे तेज़ धार तलवार 


वह अक्सर बहुत सहता है
और सहमता है वह खुद ही
होने पे अपने मर्द का दर्जा
बनता है  रोज़ ही शिकार
वह कभी बहन के हक से
वह कभी माँ के प्यार से
कोरे अधिकार से पत्नी के 
कभी बच्चों के ख्वाव से


रहता है  निरीह जानवर सा
वह सदा स्नेह का भिक्षुक 
जीता एक अनचाही जिंदगी
अकेला वह होते हुए शिकार
अक्सर ही तन और मन पे
वह झेलता है रोज़ कितने बाण
फिर भी कहते हैं लोग यही
मर्द को दर्द होता  ही नहीं

अक्सर मंचों से मैं सुनता हूँ
महिला होने के अभिशाप का प्रलाप  
जो मारता दबाता है पुरुष को
जो ठहराता है दबंग और दानव
जबकि सच तो ये भी है कि
परुष पग पग छला जाता है
पुरुष ही नहीं बनाता शिकार
उसका भी शिकार किया जाता है


केदारनाथ "कादर"