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Saturday, 26 March 2011

दरख़्त








नज़रें जरा ज़नाब गिराईए दरख़्त पर


पैदा हुए अजीब हालात दरख़्त पर






जिस साख से पनाह की उम्मीद थी बंधी


तलवार बन के घाव दे रही दरख़्त पर






आँखों में कहर बन उतर आया है जहर


दहशत सी पसरी है समूचे दरख़्त पर






कमज़ोर और खोखला यूँ होता गया अगर


न फूल ही होंगे न पत्ते ही दरख़्त पर






सहमा खड़ा हुआ है देखो दरख़्त को


अब उल्लुओं का राज सारे दरख़्त पर






नोंच नोंच पत्तों को इसे नंगा किया गया


बस घाव ही घाव हैं देखो दरख़्त पर






समझो जो बात की है मैंने दरख़्त की


लिखता है "कादर" कौन किस्सा दरख़्त पर






केदारनाथ "कादर"


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