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Saturday, 26 March 2011

दरख़्त








नज़रें जरा ज़नाब गिराईए दरख़्त पर


पैदा हुए अजीब हालात दरख़्त पर






जिस साख से पनाह की उम्मीद थी बंधी


तलवार बन के घाव दे रही दरख़्त पर






आँखों में कहर बन उतर आया है जहर


दहशत सी पसरी है समूचे दरख़्त पर






कमज़ोर और खोखला यूँ होता गया अगर


न फूल ही होंगे न पत्ते ही दरख़्त पर






सहमा खड़ा हुआ है देखो दरख़्त को


अब उल्लुओं का राज सारे दरख़्त पर






नोंच नोंच पत्तों को इसे नंगा किया गया


बस घाव ही घाव हैं देखो दरख़्त पर






समझो जो बात की है मैंने दरख़्त की


लिखता है "कादर" कौन किस्सा दरख़्त पर






केदारनाथ "कादर"


गरीबी का सच





बारह बरस का कलुआ -


हंडिया ताक रहा है सवालों भरी


धुआं देती हैं गीली लकडियाँ


माँ कहती है- बरसातों में


और चूल्हा नहीं जलता घर में


पर ये समझ नहीं आता


क्यूँ नहीं जलता चूल्हा ?


जब बरसात नहीं होती तब






सवालों कि हंडिया उबल रही है


कोई न कोई इसमें डाल देगा


नक्सलवाद, माओवाद, या राष्ट्रवाद


हाथ में बन्दूक थामकर और तब


कलुआ छीनने लगेगा अपने लिए


जिस से पेट कि हंडिया भरी रहे






केदार नाथ "कादर"










Tuesday, 8 March 2011

आज


वक़्त बदलते देखा भैया मैंने आज


अब इमान पे भारी है रोटी की गाज



पहले इन्सान को था प्रेम पे अपने नाज़


फ़ैल गया है नफरत-स्वार्थ का अब राज़



बच्चे आतंक हैं खाते, नर खाते हैं लाज


रिश्तों की मंडी से सजा है सारा समाज



कच्ची कोखों में जहर भरा जा रहा आज


बेशर्मी का नाच है , तनिक नहीं है लाज



पेट वही है"कादर" सपने बड़े हो गए आज


कान वही हैं लेकिन बेसुरे हो गए सारे साज