सोचता था उम्र भर, दीप बनकर जलूँ
बन ज्योति हाथ हाथों में लेकर चलूँ
मगर मुझको भी इस तिमिर ने छला
उजले घर , लेकिन सोच उज्वल कहाँ है
अब तो नज़रों का है धोखा भीड़ भी
भीड़ में भी शख्स अकेला ही खड़ा है
पास रहकर भी रहे हम दूर जैसे
संग सांसों के घुटन का सिलसिला है
काफिले कितने ही कायरों के है यहाँ
दोस्त भी पिछले मोड़ से मुड़ गया है
नींद नहीं ,तकिया कोहनी का लगाकर
डर लुटने का घर मन में कर गया है
सोचता हूँ कुछ धरोहर छोड़ने को लिखूं
"कादर" हर व्यथा जैसे मेरी ही कथा है
केदारनाथ "कादर"
वाह वाह,
ReplyDeleteबहुत खूब...
नींद नहीं ,तकिया कोहनी का लगाकर
डर लुटने का घर मन में कर गया है
बहुत अच्छी अभिव्यक्ति... बधाई.