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Tuesday, 4 September 2012

आँखें




जब भी आती हैं ख्यालों में, दो कजरारी तुम्हारी आँखें
कितने मधुर फूल खिला जाती हैं, चंचल तुम्हारी आँखें

यूँ लगता है खामोश हैं, आईने सी ये तुम्हारी आँखें
कैसी कैसी बातें बनाती हैं, ये वाचाल तुम्हारी आँखें

ढलते ही शाम चरागों सी, जलती हैं ये तुम्हारी आँखें
मेरी हर राह को रोशन, करती हैं ये दो तुम्हारी आँखें

सनम मुझसे दूर हो तुम, मेरे पास है तुम्हारा चेहरा
ढूँढती रहती हैं तुमको ही, हर पल ये हमारी आँखें

हम तो सोते हुए रखते हैं, सदा खुली ये अपनी आँखें
जाने किस रोज लौट आयें, मुझतक ये तुम्हारी आँखें

हमें हर गीत गाते हुए बस, तुम ही याद आते हो प्रिय
अक्सर उठ जाती हैं इस सारे शहर की मुझ पर आँखें

तुमको इन आँखों में मैंने बंद, सपने सा अपने रखा है
"कादर" तुम्हारे साथ ही होंगी, बंद सनम ये हमारी आँखें


केदारनाथ "कादर"

Prarthana

हे!प्रभु करो करम मिले शांति परम
मेरे जीवन धारण का यही बनें धर्म

कण कण में तेरा सब पाएं दर्शन
समझे सब देह धरण का पवित्र धर्म

सब नेह रखें संसार में एक दूजे से
करें सब जग में पालन भ्रात्री धर्म

मानव का धर्म धरा पर केवल है प्रेम
सब मन से निभाएं ये प्रेम धर्म

यहाँ कोई गैर नहीं सब अपने हैं
मानव हेतु यही सबसे ये बड़ा धर्म

रखो, सूर्य, हवा, जल सम तुम मन
रहे मन में न बैर यही युग का धर्म

"कादर " प्रभु से विनय कर जोर
सभी थाम चलें डोर बढे प्रेम धर्म


केदारनाथ "कादर"