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Wednesday, 29 August 2012

स्वांस स्वांस परिवर्तन होता, रूप बदलता तेरा

पग पग पर घेरा मौत का, कहता है मन मेरा

कितनी पोथी पढ़ी समझ में केवल इतना आया
है जो नहीं पर दीखे, माया माने है मन मेरा

केवल रूप बदल जाता, शास्वत कुछ न भाई
आत्मा संग करो सगाई, ये कहता है मन मेरा

कितने जन्म के बिछड़े हैं, नहीं स्मरण है भाई
यही समय है काज सजा लो, कहता है मन मेरा

सीधा किया, पर सीधा नहीं, तुम भी जानो भाई
उलट के देखो अंतर में, यही कहता है मन मेरा

अब न बना तो फिर न बनेगा, व्यर्थ जीवन पाना
साधो संग सतगुरु का प्राणी, कहता है मन मेरा

पाकर जुगत जुगाड़ बिठा , ये जगत सरायखाना
खुद को खोकर पाओगे "कादर" कहता मन मेरा



केदारनाथ "कादर"

कैसे कलम से रास रचाऊँ प्रिये !




अब कैसे कविता लिखूँ प्रिये !
ये समझ नहीं मुझे आता है,
देहरी से बाहर जाकर देखो,
समय विभत्स चित्र दिखाता है,
क्या तुम ये चाहती हो प्रिये,
मैं कायर कवि कहाऊँ कभी,
रख लूं निजानुभुती को बंद,
कलम से रास रचाऊँ प्रिये !

भूखी गरिमा की बात करूँ ,
मर्यादा भंग पर लेख लिखूँ,
या बाप के खोट को छोड़ ,
उभरे स्तनों पर शेर लिखूँ,
दृष्टी खोट पर मूक रहूँ,
नेताओं पर मैं न लिखूँ,
शासन के भय से डर जाऊँ,
कलम से रास रचाऊँ प्रिये !

घर की दहलीज में सहमे हैं,
उन्हें न दूँ शब्दों का संबल,
कैसे अधनंगे मांसल तन को,
मैं कह दूँ कोई सुमन सुंदर,
कहकर बहन जो छलते हैं,
कैसे न उनपर कटाक्ष करूँ,
कैसे संग शयन करूँ तेरे,
कलम से रास रचाऊँ प्रिये !

झीने कपड़ों में जब कोई,
राशन की लाईन में युवती हो,
जिसके उजले तन पर आकर,
हर काली नजर ठहरती हो,
जब पिता की धुँधली आँखों में,
चिंताओं खिचड़ी पकती हो,
शब्दों की चिता सजाकर मैं,
कलम से रास रचाऊँ प्रिये !

हर गाँव पर गिद्ध दृष्टी गाढे,
घर उजाड़ , मकान देने वाले,
लोगों की कितनी भीड़ बढ़ी,
कैसे न उन्हें जगाऊँ प्रिये !
अब गाँव के बच्चे सहमे हैं,
और शहर हुँकारे भरता है,
कामुकता को कहूँ कविता,
कलम से रास रचाऊँ प्रिये !


अब गौरैया गायब हैं घर से,
गिद्धों का शोर उभरता है,
बनता जाता है शहर मेरा,
शमशान जीवित लाशों का,
खुद माँ जहाँ सौदा करती हो,
निज तन का घर की खातिर,
मैं ऐसे शासन पर मौन रहूँ,
कलम से रास रचाऊँ प्रिये !


जब वातायन के शीशों पर,
जवानी प्रेम पत्थर फेंके,
और सहमकर युवती रोये,
तब कैसे न बाहर निकलूँ,
कैसे सहवास की साधों का,
मैं न करूँ प्रतिकार प्रिये !
कैसे न सत्य समझकर मैं,
कलम से रास रचाऊँ प्रिये !


व्रत उपवासों में उलझे हैं,
जो स्वयं को न जान सके,
केवल शब्दों की रेख चले,
जीवन अध्यात्म न जान सके,
कैसे जीवन बह जाने दूँ ,
सहवास की काली कीचड़ में,
कैसे सौंदर्य तन का निरखूँ ,
कलम से रास रचाऊँ प्रिये !


मैं चेतन हूँ ये कहता हूँ,
कैसे न उन्हें जगाऊँ प्रिये,
अगन लगी है चहुँ ओर,
कैसे मन समझाउं प्रिये!
है कवि धर्म कविता कहना ,
जो सत्यभान करवाए प्रिये!
कैसे बाहुपाश में बाँधकर,
कलम से रास रचाऊँ प्रिये !







केदारनाथ "कादर"