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Sunday, 30 January 2011

आकंठ तक भ्रष्टाचार का खरपतवार है
जन्म से मृत्य तक यहाँ केवल अनाचार है
कृषि प्रधान देश में ये कैसी फसल उगी है?
अब सोचता हूँ की हम कैसे किसान हैं ?

दौड़ रहे हैं आँखें मूंदकर दिशाहीन हम
केवल अनुसरण करते पश्चिमी मृत्युपथ का
औद्योगीकरण का विष पिलाते व्यवस्था को
ग्रामीण सह भागिता की हम जडें काट रहे हैं

गुलाम बनानेवाली व्यवस्था ये नौकरीतंत्र है
स्वरोजगार, स्वदेशी का स्वाध्याय बिसराया है
केवल डिग्रियां हासिल है ज्ञान कहाँ आया है ?
बिना नींव का ख्याल अब हमने अपनाया है

बिचौलिये मौज कर रहे हैं हमारे श्रम पर
हमने ही तो बढाई हैं दूरियां आपस में
भूल रहे हैं पाठ मितव्यता का हम सब
इसी कारण तो कहते हैं हम अभाव है

अक्सर चर्चाएं होती हैं लेख लिखे जाते हैं
मोर्चे निकलते हैं खबरें छपती चलती हैं
मगर सब दूसरे को बदलने को आतुर हैं
कभी सोचा है हम कब बदल रहे हैं ?

केदार नाथ "कादर"