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Wednesday, 28 April 2010

खेल

अब मजदूरों की कौन सुने ?
अब मजबूरों की कौन सुने ?
सत्ता के गलियारों में हैं -
गाँधी जी के बन्दर बैठे

वे बोल रहे हैं बे तोले
वे सुनतें हैं दे अंगुली कान
आँखों पर पट्टी बांध रखी
करतें हैं खेलों का गुणगान

कहीं तोड़ रहे हैं सड़के
कहीं पर करते हैं निर्माण
ताकि इन सब की आड़ में
मुनाफे का बना सकें सामान

क्या देश को खेल ही चाहियें ?
क्या देश में नहीं समस्या है ?
क्या एकाएक गरीबी गायब है ?
लीपा पोती से क्या होगा ?

अब भी लोग सड़कों पे सोते हैं
बच्चे भूखे अभी भी रोतें हैं
मरतें है लोग बिना दवाई के
बिन कपड़ों के लोग होतें है दफ़न

अभी पहुंची नहीं हैं किताबें
नहीं देखा है स्कूल का मुहं
जहाँ पता नहीं कहाँ रहते हैं
उस देश में खेल तमाशा है

ये खेल नहीं अय्यासी हैं
गरीबी की खिल्ली बदमाशी है
भूखे नंगे क्या खेलेंगे
बस हार का दंश ही झेलेंगे

इतना पैसा गर कहीं और
सही तरह कहीं पर लग जाता
कितने भूखे प्यासों को "कादर"
कुछ दिन जीने को मिल जाता

केदारनाथ "कादर"

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