आज मन की बात कहने को मन करता है
आज उसे छू लेने को मन करता है
मन करता है रंग डालूं पोर पोर तन का
मगर स्त्री और पुरुष होने का अंतर
मन को होली नहीं खेलने देता
शायद मन इस बात को जानता है उसका भी
वह भी चाहकर जकड़ी हुई है खुद में
जलाना चाहती है होली झूठे अलगाव की
वह होली खेलती है नजर से
मुस्कराहट के रंग से
अपनी चंचलता से
और कर देती है मेरे अंग अंग को सराबोर
मैं भीगा हुआ हूँ पर दीखता नहीं
ठीक वैसे ही जैसे ये होली ये प्यार
उसकी मुकुराहट छूने का एहसास देती है
वह मेरी दोस्त अक्सर ऐसे ही होली खेलती है
मेरी सोच ही मेरी दोस्त है
केदार नाथ "कादर"