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Monday 30 August 2010

यात्रा


मैं अपनी यात्रा में -

देख रहा था एक बुजुर्ग

फर्श पर बैठे रेलडिब्बे में

पिताजी की उम्र से बड़ा था

टॉयलेट के पास पड़ा था

कृशकाय सूनी आँखें लिए

बेबसी के जल से भरी

बारबार फिसलते उसके हाथ

बाँधकर रखे घुटनों से,नींद में

मन में आया कह दूं उसे

यहाँ आकर सो जाओ सीटपर

मगर-

मेरे कपड़ों ने मेरी आवाज को

मेरे मन ने मेरी आत्मा को

मेरे शब्दों ने मेरे होठों को

मुझसे बगावत कर रोक दिया

मेरा झूठा अहम् जीत गया

अपने ही स्वार्थ में डूबा

यात्रा ख़तम हो गयी

आज गद्दे पे लेटकर

मेरा ही मन कहता है

तुम हार गए अपने ही

रचे झूठे स्वार्थ से वी

केदार नाथ "कादर"

http://kedarrcftkj.blogspot.com

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