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Sunday 11 July 2010

बंजर बढ़ता, बाढ़ है आती, ऐसा भैया जान
आँख पे पट्टी बांधे बैठा, पढ़ा लिखा इन्सान

जंगल काटे, वन घटाए, पैसा खूब कमाए
प्रकृति के आँचल को नोचे, कैसा है हैवान

पर्वत नंगे, नदियाँ प्यासी, सूखा है मैदान
अरे जाग जा भूल मान ले, न बन नादान

बांध बनाकर , तुम गले न नदियों के घोंटो
रुके जल से बढती गर्मी, जानो ये इन्सान

पूरी धरती अपना घर है, बनो न बेईमान
बृक्ष उगें वन बचें , हो नदियों का सम्मान

अभी समय है भूल सुधारो बनो नहीं नादान
"कादर" आँखें बंद रखीं तो होगा बस शमशान


केदारनाथ "कादर"
kedarrcftkj.blogspot.com

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