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Thursday 15 July 2010

मैं

मुझे दिखता नहीं सौन्दर्य, नहीं दिखती है मादकता
जहाँ पे फैली है अराजकता, मैं उसी जगह बैठा हूँ

पेट पे ताल दे रहे कितने, जो हैं सब भूख के मारे
वीभत्स दृश्य और तिरोहित रंग सब देखा करता हूँ

आत्मसचेत जीवन-ज्ञाता, मैं हरदम रोता रहता हूँ
शब्दचित्र मैं विभत्स ही नयनों से देखा करता हूँ

नहीं कोई कल्पना होती मैं बस कलपता रहता हूँ
हंसी है चस्पा चहेरे पे, जीवन जहर पीया करता हूँ

बिम्ब देखता हूँ कितने, टूटे हुए जीवन दर्पण में
आक्रोशित होता है मन खुदपर, क्यूँ जिया करता हूँ


केदारनाथ"कादर"
kedarrcftkj.blogspot .com

1 comment:

  1. मैं
    मुझे दिखता नहीं सौन्दर्य, नहीं दिखती है मादकता
    जहाँ पे फैली है अराजकता, मैं उसी जगह बैठा हूँ

    mere man ki baat to ho gayi magar ye honi nahi chaahiye thi...bahut sahi likhaa hai aapane saari panktiyaa satik...badhai ek maanak rachanaa ke liye

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