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Sunday 11 July 2010

ये तेरा लालच, ये मेरा लालच
जीवन कितने ही लील गया

न जागे लालच की नींद से
न कर्त्तव्य का ही भान रहा

तुम हो अफसर बैठे AC में
न पदगरिमा का ध्यान रहा

अब कर्मों की खेती में लाशें
देख के मन क्यूँ हैरान रहा

क्या पाया करके ये प्रपंच
क्यूँ अब हाथों को मल रहा

तेरे अपने भी अब हैं फंसे
क्यूँ सोच में मन जल रहा

कितना बड़ा अपराध सोच ले
पैसों की खातिर करता रहा

क्या हासिल हुआ इस चोरी से
"कादर" मन तो तेरा शमशान रहा

केदारनाथ "कादर"
kedarrcftkj.blogspot.com

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